Saturday 27 October 2012

Poem


ग़ज़ल





गुजरे हुए कल का अन्दाज ढूंढती हूं।
इंसान मे इंसानियत के राज ढूंढती हूं।।
मंजिल मिल जाएगी ये यकीं है मुझको,
जिंदगी बन जाएगी ये यकीं है मुझको।
बहती हुई नदी हूं, इक सार ढूंढती हूं,
इंसान मे...
आसां नही करना, कहना जो मुमकिन,
भूलेंगे ना अब जिन्दगी के ये दिन।
कहीं डूब ही जाउं पतवार ढूंढती हूं,
इंसान मे...
इंसान मे छिपे इंसानियत के दुश्मन,
बाहर से देवता हैं शैतान सब अन्दर।
दिल मे देखो सबके, बिखरे हैं मंजर,
उजड़े चमन मे गुलबाग ढूंढती हू।
इंसान मे,..''

-
मृदुल भारद्वाज
 
टड़ियावाँ,
हरदोई


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