Monday 21 January 2013

गाँवों का खोखला उत्थान

विश्वपटल पर हमारे देश की पहचान एक कृषि प्रधान देश के रूप मे है. गाँवों को भारत के पैर कहा जाता है. हम गाँवों के बहुआयामी उत्थान के लिए अग्रसर भी हैं चाहे वह सड़कों, नहरों, शिक्षा, स्वास्थ्य कोई भी क्षेत्र हो। प्रगति के आंकड़े वन्दनीय ऊंचाईयों को छू रहै हैं, लेकिन कई बार गाँव के दावे पर आंकड़े खोखले सिद्ध हो जाते हैं. वैश्विक फलक पर देश के पैरों का ढिंढोरा तो खूब पिटता है परन्तु पैरों का लकवा आर पोलियो किसी के संज्ञान मे नही है, परिणाम लड़खड़ाती गति हमारे समक्ष है. वस्तुत: विकास की बयार का रुख ही कुछ ऐसा है कि हम ग्रामीण भी अपनी उन्नति का मानक मोबाइल, वाह्य व्यक्तित्व/साज-सज्जा और विलासिता मानने लगे हैं. भूलते जा रहे हैं कि आर्थिकी रीढ़ तो कृषि है, उद्यम ही सर्वसाधन है. गाँवों का शहरीकरण ज्स गति से हो रहा है उससे कही तीव्र गति से मानसिकता बदल रही है वो भी पश्चिमी तर्ज पर. विकास की धुरी कहीं भी घूमती हो पर विश्व का मूल आधार प्राथमिक उत्पादों पर हा टिका है. जिनके लिए हमे कृषि/प्रकृति और उद्यम का सहारा लेना ही पड़ेगा. परन्तु कृषि के साथ उद्यम करना परम्पराओं का अनुसरण करना तो वर्तमान में पिछड़ेपन का कारण और विकास का अवरोधक माना जाने लगा है. गाँवों के अवलोकन के बाद देश के लिए 'लोकत्न्त्रिक' शब्द मिथ्या सा लगने लगता है. वहाँ बोट बहुत से लोग डालते हैं, तो इस लिए कि 'सब डालते हैँ' न कोई विकास की अपेक्षा न किसी सुविधा की आशा. विपन्नता, अपराध, खुराफात गाँवों के अभिन्न अंग हैं. आज भी, जब हम आंकड़ें देख गौरवान्वित होते हैं, गलियारे कीचड़ से डूबे हुए हैं. मनरेगा की अपूर्व सफलता के बाद भी कोनों मे जुएं के फड़ प्राय: लगे रहते हैं- खाली हैं क्योंकि उनके पास 'जाब कार्ड' नहीं है, खेती मे जितना पैदा होता है उससे ज्याद लग जाता है, डी.ए.पी. दुगने दाम की मिलने लगी है, उन्नत बीज भी तो उतना महंगा है. निम्न मूल्यों पर राशन उपलब्ध होने पर भी कई परिवारों मे एक बार ही भोजन बनता है,क्योंकि राशन के लेने के लिए राशनकार्ड ही नही है. कितनी कन्याएं कन्या विद्याधन, साइकिल आदि सुविधाओं से वंचित हैं. अब कोई कहे कि ये BPL सूचियां आदि सब मिथ्या है क्या! तो बिलकुल नहीं, इन सुविधाओं और कार्डों का लाभ तो वो धनाड्य जन ले रहे हैं जो जीवन तो विलासिता का जी रहे हैं परन्तु अभिलेखों मे निर्धनतम् बने हुए हैं. ये तथ्य गौढ़ हैं और हम खुश हो रहे हैं देख के कि हर चरवाहे, मजदूर, जुआंरी, किशोर, प्रौढ़ की जेब मोबाइल से झन्कृत हो रही है. इस खोखले उत्थान के बारे मे क्या कहा जाए, मेरी समझ से परे है. मैं कोई कपोल कल्पत बात नहीं कर रही बल्कि देखा हुआ आर जिया हुआ वर्णित कर रही हूं. मेरा अपना गाँव-साखिन, वि.क्षे.-टड़ियावां, पड़ोस के गाँव बरबटापुर, ढपरापुर, पहाड़पुर, गोपालपुर मुझे यही अनुभव प्रदान करते हैं. सुने और पढ़े आंकड़ों पर विश्वास कैसे कर लूं?                                        
वन्दना तिवारी,
साखिन

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