Thursday 28 February 2013

भूली-बिसरी यादें

दूरियाँ | भूली-बिसरी यादें

स्वप्न मेरे...........: माँ ... एक रूप

मेरी धरोहर: लौटकर कब आते हैं???????.........प्रीति सुराना: सपने हैं घरौंदे, जो उजड़ जाते हैं,.... मौसम हैं परिन्दे, जो उड़ जाते हैं,.... क्यूं बुलाते हो, खड़े होकर बहते हुए पानी में उसे...

hum sab kabeer hain: टूटा मन


भूली-बिसरी यादें : तकदीर के मारे:                          तूफां से डरकर लहरों के बीच  सकारे   कहाँ जाएँ,              इस जहाँ में भटककर तकदीर के मारे कहाँ जाएँ ।...

डॉ. हीरालाल प्रजापति: 43. ग़ज़ल : पूनम का चाँद...................

परिकल्पना: उत्थिष्ठ भारत

स्वप्न मेरे...........: वो एक लम्हा ...

फूल | भूली-बिसरी यादें

दोहे


               -फ़िराक़ गोरखपुरी
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन रात
होनहार बिरवान के चिकने चिकने पात

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

जो न मिटे ऐसा नहीं कोई भी संजोग
होता आया है सदा मिलन के बाद वियोग

जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर
अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर

कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय
तेरा घर जो छोड़ दे, दर दर ठोकर खाय

जगत धुदलके में वही चित्रकार कहलाय
कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय

बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़
हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन भीड़

याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार
जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार

मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़

दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम
मन मन्दिर की यात्रा, मूरख चारों धाम

वेद, पुराण और शास्त्रों को मिली न उसकी थाह
मुझसे जो कुछ कह गई, इक बच्चे की निगाह

Thursday 21 February 2013

रात


        - उदय प्रकाश
इतने घुप्प अंधेरे में 
एक पीली पतंग
धीरे-धीरे
आकाश में चढ़ रही है.

किसी बच्चे की नींद में है
उसकी गड़ेरी

किसी माँ की लोरियों से
निकलती है डोर !

Wednesday 20 February 2013

तिब्बत



        - उदय प्रकाश

तिब्बत से आये हुए
लामा घूमते रहते हैं

आजकल मंत्र बुदबुदाते
उनके खच्चरों के झुंड
बगीचों में उतरते हैं

गेंदे के पौधों को नहीं चरते
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं

पापा ?
तिब्बत में बरसात
जब होती है

तब हम किस मौसम में

होते हैं ?
तिब्बत में जब तीन बजते हैं
तब हम किस समय में

होते हैं ?
तिब्बत में
गेंदे के फूल होते हैं

क्या पापा ?
लामा शंख बजाते है पापा?
पापा लामाओं को
कंबल ओढ़ कर

अंधेरे में

तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है

कभी ?
जब लोग मर जाते हैं
तब उनकी कब्रों के चारों ओर

सिर झुका कर

खड़े हो जाते हैं लामा
वे मंत्र नहीं पढ़ते।
वे फुसफुसाते हैं ….तिब्बत
..तिब्बत

तिब्बततिब्बत

….तिब्बततिब्बततिब्बत

तिब्बत-तिब्बत ..
..तिब्बत …..
….. तिब्बत -तिब्बत
तिब्बत …….
और रोते रहते हैं
रात-रात भर।
क्या लामा
हमारी तरह ही

रोते हैं

पापा ?

Wednesday 13 February 2013

धरोहर

साहित्य एक विशाल सागर है जिसमें जितना डूबो उतना और गहरे जाने का मन होता है। इस विशाल सागर से कुछ मोती आपके सामने लिंक के रूप में प्रस्तुत हैं। आशा है आप आनंद उठाएंगे।
शुरूआत ऐसे रचनाकार से जो लिखते तो बहुत दिनों से हैं लेकिन गुपचुप। अभी कुछ दिनों पहले ही इन्होंने अपनी रचनायें सबके सामने लानी शुरू की हैं। ये हैं सण्डीला, हरदोई, उत्तर प्रदेश के रहने वाले मो आरिफ सण्डीलवी।

Urdu-Hindi Poetry: राम कहानी: वो चांद सी सूरत नामे-खुदा, वो उठती जवानी क्या कहिए दिल ले गयी बातों बातों में, ये ज़हर बयानी क्या कहिए कुछ हंस के कटी कुछ रो के...

मेरी धरोहर: छोड़ो मेरे दर्दे-ए-दिल की फिक्र तुम.........अधीर: यहॉ कब कौन किसका हुआ है , इंसान जरुरत से बंधा हुआ है । मेरे ख्वाबो मे ही आते है बस वो, पाना उसको सपना बना हुआ है। सुनो,पत्थर द...

खुद को पाना जरूर Khud ko pana jarur | Life is Just a Life

मेरी धरोहर: सुकूं बांकपन को तरसेगा...............................: एक निवेदनः कोई सामान घर में एक कागज में पेक करके लाया गया वह कागज मेरी नजर में आया, उसी कागज में ये ग़ज़ल छपी हुई थी, पर श...

उच्चारण: "ग़ज़ल-खो चुके सब कुछ" (डॉ,रूपचन्द्र सास्त्री...: खो चुके सब, कुछ   नहीं   अब, शेष खोने के लिए। कहाँ से लायें धरा , अब बीज बोने के लिए।। सिर्फ चुल्लू में सिमटकर , रह ग...

मेरी धरोहर: अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है .............सच...: हवा जो नर्म है ,साज़िश ये आसमान की है वो जानता है परिंदे को ज़िद उड़ान की है............ मेरा वजूद ही करता है मुझसे ग़द्दारी नहीं तो उठने क...

|| आकाश के उस पार ||: फासला: क्या फरक कि मैं चला या तू चला है ,  बात है कि फासला कुछ कम हुआ है |  टूटने वाला हूँ मैं कुछ देर में ,  ये मेरी अपनी अकड़ का ही सिला है |  ...

Tuesday 12 February 2013

अनुकूल वातावरण



                  - दुष्यन्त कुमार 

उड़ते हुए गगन में

परिन्दों का शोर

दर्रों में, घाटियों में

ज़मीन पर

हर ओर...

एक नन्हा-सा गीत

आओ

इस शोरोगुल में

हम-तुम बुनें,

और फेंक दें हवा में उसको

ताकि सब सुने,

और शान्त हों हृदय वे

जो उफनते हैं

और लोग सोचें

अपने मन में विचारें

ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं।

                                   

Saturday 9 February 2013

एक नया रचनाकार


     आइए आपका परिचय कराते हैं एक नये रचनाकार की लेखनी से। ये हैं चंद्रेश कुमार छतलानी। जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ में सहायक आचार्य पद पर कार्यरत छतलानी जी कंम्प्यूटर विशेषज्ञ होने के साथ साहित्य में भी अच्छी पकड़ रखते हैं।

यहां प्रस्तुत है छतलानी जी की लेखनी से निकली एक कहानी। कृपया इसे पढ़ें और अपने सुझाव दें।


सच की तस्वीर


     आनंद जी अनमने मन से हर तस्वीर को देखते जा रहे थे| विद्यालय के प्रिंसिपल महोदय उनके साथ थे और सारे विद्यार्थी सांस रोके इस प्रतीक्षा में थे कि, जिसकी बनाई तस्वीर को प्रथम पुरस्कार मिलेगा, उसके  नाम की घोषणा कब होगी|

     आनंद जी आज इस प्रदर्शनी में मुख्य अतिथी एवं निर्णायक बन कर आये हुए थे, वो एक विश्वविद्यालय के कुलपति थे| शहर के एक प्रधान विद्यालय के बच्चों की प्रतिभा जो ड्राइंग शीट पर उकेरी हुई है, उसको सम्मानित करने के उद्देश्य से मुख्य निर्णायक के रूप में उन्हें आमंत्रित किया गया था |

     दोपहर के इस कार्यक्रम के लिए सवेरे ही उनके पास दो फोन आ गए थे, एक उनकी पत्नी के भाई का और एक मंत्री महोदय का, दोनों के नौनिहाल इसी विद्यालय में अध्ययनरत थे| और दोनों ही प्रथम पुरस्कार के इच्छुक थे|

     आनंद जी मन से दुखी थे, वो सोच रहे थे कि, “कौन बनेगा करोडपती” सरीखे प्रश्नोत्तरी कार्यक्रम की तरह उनके पास भी विकल्प मिले हुए हैं, पहला मंत्रीपुत्र,  दूसरा धर्मपत्नी का भतीजा और तीसरा जो वास्तव में योग्य है| तीसरा विकल्प तो चुनना ही नहीं है| अब बचे दो| सोच रहे थे कि या तो मंत्रीपुत्र को प्रथम और धर्मपत्नी के  भतीजे को द्वितीय पुरस्कार दे दें| और जो वास्तव में योग्य है उसके तीसरा दे दिया जाये | फिर कभी सोचते कि नहीं प्रथम पुरस्कार तो भतीजे को ही दिलाया जाये, उसके जीवन में अधिक काम आयेगा और मंत्रीपुत्र को द्वितीय बना दें| लेकिन कहीं मंत्रीजी नाराज़ होकर स्थानान्तरण ना कर दें|

     “ओफ्फोह ! क्या अंतरद्वन्द है? क्या करूं?” मन ही मन ये सोचते हुए आनंद जी एक तस्वीर के सामने ठिठक से गये, और उनके मुख से निकल गया “अरे!! यह क्या है?”

     तस्वीर में एक छोटा सा बच्चा था जिसकी बहुत बड़ी मूंछे थी| मूंछों के एक तरफ कुर्सी लटक रही थी और दूसरी तरफ माता लक्ष्मी लटक रहीं थी| तस्वीर की पृष्ठभूमी में भारत का नक्शा बना हुआ था| 

     उन्होंने प्रिंसिपल महोदय से थोड़ा क्रोधित होकर पूछा कि “अरे!! यह क्या है? प्रिंसिपल महोदय, इस तरह के देश और भगवान के साथ खिलवाड़ करने वाली तस्वीर यहाँ क्यों टंगी है? क्या आप इस तरह से अपने विद्यार्थियों को देशभक्त बना रहे हैं? विद्यालय मंदिर की तरह होता है और इसमें भारत के नक़्शे में माँ लक्ष्मी मूछों पर लटकी हुई है| इस तरह की अपमानजनक तस्वीर क्यों? इसे तुरंत हटा दें| हमें देश को सच्चे और संस्कारित नागरिक देने हैं| इस कार्य में इस तरह की नकारात्मक तस्वीरें बाधक होती हैं|”

     प्रिंसिपल साहब ने तुरंत ही उस तस्वीर को हटाने का आदेश दे दिया और इस तस्वीर के रचियता को बुलाया, ताकि दण्डित कर सकें|

     एक छोटा सा गरीब बच्चा, जिसकी कमीज़ भी फटी हुई थी, वो दण्डित होने के लिए हाज़िर हो गया| प्रिंसिपल महोदय ने उसके डांटते हुए पूछा, “इस तरह की हरकत करने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई? तुम खुद छात्रवृत्ति लेकर पढ़ते हो और जो देश तुम्हारी पढ़ाई का खर्च उठा रहा है, उसी के विरुद्ध और अपने धर्म के विरूद्ध कार्य करते हो| पता है मुझे तुम्हारी वजह से कितना शर्मिन्दा होना पडा?”

     फिर प्रिंसिपल महोदय, आनंदजी की ओर मुखातिब होकर बोले कि, “सर, क्षमा चाहूंगा, जिस परिवार से यह है, उसमें ऐसे ही संस्कार हैं, तभी ऐसा बन रहा है|”

आनंदजी के चेहरे पर हलकी सी मुस्कराहट आ गयी|

     वह बच्चा बिलखते हुए बोला, “आदरणीय प्रिंसिपल सर, मैं किसी असंस्कारित परिवार से नहीं हूँ| मेरे दादाजी स्वतन्त्रता सेनानी थे और उसी आन्दोलन में अपनी आहुती दे दी| मेरे पिताजी मोटर इंजीनियर थे, लेकिन उनकी प्रतिभा देखकर उनके अपने एक साथी ने ईर्ष्यावश उनके हाथ मशीन में डाल दिए और वे हाथ गँवा बैठे|”

आनंदजी के चेहरे की मुस्कराहट गंभीरता में बदल गयी|

     वह बच्चा निरंतर कह रहा था कि “सर, मैं देश को खराब क्यों करूंगा मैं क्यूँ कुसंस्कार को प्रचारित करूंगा? मेरे परिवार में बलिदान देने की प्रथा है| नींव की ईट बनने की प्रथा है|”

     प्रिंसिपल महोदय एक छोटे से बच्चे के मुंह से इतनी बड़ी बातें सुनकर हतप्रभ रह गए| और आनंद जी का मुंह कुछ फीका सा पड गया |

     अब उस बच्चे ने कहा “सर, मेरे दादाजी कहते थे कि आज़ादी के बाद यह देश बहुत सुन्दर हो जायेगा| अंग्रेज का बच्चा नहीं भारत का बच्चा आगे बढेगा| योग्य वो होगा जो देशप्रेमी है| उत्तम वो होगा जो संस्कारित है और कर्मशील है| सर, मेरे दादाजी झूठ बोलते थे, इसलिए मैनें सच की तस्वीर बनायी है|”

     प्रिंसिपल महोदय “नहीं तुम्हारे दादाजी सच ही तो कहते थे, आज हम स्वतन्त्र हैं, और जो आगे बढ़ रहे हैं वो भारत के बच्चे ही तो हैं| तुम्हें ऐसा क्यों लगता है?”

     आनंदजी ने प्रिंसिपल महोदय की बात काट कर गंभीरता से पूछा, “यह भी बताओ कि ये सच की तस्वीर क्या बला है?”

     बच्चे ने उत्तर दिया “सर, मैनें जो तस्वीर बनायी उसमें एक छोटे बच्चे की बहुत बड़ी मूंछें हैं, यह बच्चा भारत का बच्चा है| मूंछें इसकी प्रतिष्ठा है, जो कि मूछों की तरह सिर्फ दिखाने के लिए ही हैं| और इन मुछों के सहारे एक तरफ लटक रहे हैं कुर्सीपति जो इन मूछों का नाम लेकर उसका उपयोग अपनी कुर्सी बचाने में और अपने कार्य सिद्ध करने में लगे हुए हैं, दूसरी तरफ लक्ष्मीपति लटक रहे हैं जो कहते हैं कि वो गरीबो के उत्थान के लिए दान दे रहे हैं और अपनी खुद की जेब भरने में लगे हुए हैं, इस तरह से मूछों का उपयोग कर रहे हैं|

     ये मूछें, हमारी प्रतिष्ठा केवल दिखाने के लिए ही है| धनपति और कुर्सिपति इसका उपयोग स्व-उत्थान के लिए कर रहे हैं| कभी भगवान के मंदिर बना के, कभी झूठा-सच्चा दान करके, कभी हमारी गरीबी को बेच के, कभी अस्वस्थता के नाम पर, अशिक्षा के नाम पर, कभी हमारी स्त्री-बच्चे बेच के, कभी पास होने का या नौकरी से निकाल देने का डर दिखा के, कभी कुछ तो कभी कुछ या कुछ और.... ये मंदिर, मस्जिद, अस्वस्थता, गरीबी, अशिक्षा, डर, आदि भारत के बच्चे की मूछें हैं| सर, ये सभी इन मूछों के सहारे से अपने आप को आगे बढ़ा रहे हैं|”

     अपनी थूक निगल कर बच्चा पुनः बोला,“सर, दादाजी झूठ कहते थे| आज भारत का बच्चा आगे नहीं बढ़ता, या तो कुर्सीपति का बच्चा या फिर धनपति का बच्चा आगे बढ़ता है| इसलिए, उनके लिए मैनें सच की तस्वीर बनाई| कभी तो वो इसे देखेंगे और समझेंगे कि नाहक ही उन्होंने अपनी जान दे दी|”

     बच्चे के चुप होते ही पूरे कमरे में चुप्पी छा गयी| प्रिंसिपल महोदय जाने क्यों शर्मिन्दा से हो रहे थे और आनंद जी बदहवास से खड़े थे और उनके हाथ में परिणाम-पत्रक था, जिसमें सुन्दर, स्व-कार्य, स्वच्छता, अद्वितीय, अर्थपूर्ण और ‘निर्णायक की पसंद’ के अंक भरने की प्रतीक्षा कर रहे थे| सच की तस्वीर के सामने हार मानने की हिम्मत नहीं हो रही थी|


-                                                                                                                                       चंद्रेश कुमार छतलानी

पता -   ४६, प्रभात नगर, सेक्टर - ,                                                 हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान)
फोन - ९९२८५ ४४७४९
-मेल chandresh.chhatlani@gmail.com
यू आर एल http://chandreshkumar.wetpaint.com


Saturday 2 February 2013

देखा हर एक शाख पे


- फ़िराक़ गोरखपुरी
देखा हर एक शाख पे गुंचो को सरनिगूँ१.
जब गई चमन पे तेरे बांकपन की बात.

जाँबाज़ियाँ तो जी के भी मुमकिन है दोस्ती.
क्यों बार-बार करते हो दारों-दसन२ की बात.

बस इक ज़रा सी बात का विस्तार हो गया.
आदम ने मान ली थी कोई अहरमन३ की बात.

पड़ता शुआ४ माह५ पे उसकी निगाह का.
कुछ जैसे कट रही हो किरन-से-किरन की बात.

खुशबू चहार सम्त६ उसी गुफ्तगू की है.
जुल्फ़ों आज खूब हुई है पवन की बात.



.सिर झुकाए हुए . सूली के तख्ते और फंदे . शैतान 
. किरण . चाँद . चारों ओर.

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...