Monday 15 July 2013

बहू जो बन गई बेटी

आज तो सुबह सुबह ही पड़ोस के मोहन बाबू के घर से लड़ने झगड़ने की जोर जोर से आवाजें आने लगी| लो जी, आज के दिन की अच्छी शुरुआत हो गई सास बहू की तकरार से| ऐसा क्यों होता है जिस बहू को हम इतने चाव और प्यार से घर ले कर आते है, फिर पता नही क्यों और किस बात से उसी से न जाने किस बात से नाराजगी हो जाती है| जब मोहन बाबू के इकलौते बेटे अंशुल की शादी एक, पढ़ी लिखी संस्कारित परिवार की लड़की रूपा से हुई थी तो घर में सब ओर खुशियों की लहर दौड़ उठी थी| मोहन बाबू ने बड़ी ईमानदारी और अपनी मेहनत की कमाई
से अंशुल को डाक्टर बनाया| मोहन बाबू की धर्मपत्नी सुशीला इतनी सुंदर बहू पा कर फूली नही समा रही थी लेकिन सास और बहू का रिश्ता भी कुछ अजीब
सा होता है और उस रिश्ते के बीचों बीच फंस के रह जाता है बेचारा लड़का, माँ का सपूत और पत्नी के प्यारे पतिदेव, जिसके साथ उसका सम्पूर्ण जीवन
जुड़ा होता है| कुछ ही दिनों में सास बहू के प्यारे रिश्ते  की मिठास खटास में बदलने लगी| आखिर लडके की माँ थी सुशीला, पूरे घर में उसका ही
राज था, हर किसी को वह अपने ही इशारों पर चलाना जानती थी और अंशुल तो उसका राजकुमार था, माँ का श्रवण कुमार, माँ की आज्ञा का पालन करने को सदैव तत्पर| ऐसे में रूपा ससुराल में अपने को अकेला महसूस करने लगी लेकिन वह सदा अपनी सास को खुश रखने की पूरी कोशिश करती लेकिन पता नही उससे कहाँ चूक हो जाती और सुशीला उसे सदा अपने ही इशारों पर चलाने की कोशिश में
रहती| कुछ दिन तक तो ठीक रहा लेकिन रूपा मन ही मन उदास रहने लगी| जब कभी दबी जुबां से अंशुल से कुछ कहने की कोशिश करती तो वह भी यही कहता, ''अरे भई माँ है'' और वह चुप हो जाती| देखते ही देखते एक साल बीत गया और धीरे धीरे रूपा के भीतर ही भीतर अपनी सास के प्रति पनप रहा आक्रोश अब ज्वालामुखी बन चुका था| अब तो स्थिति इतनी विस्फोटक हो चुकी थी किदोनों में बातें कम और तू तू मै मै अधिक होने लगी| अस्पताल से घर आते ही माँ और रूपा की शिकायतें सुनते सुनते परेशान हो जाता बेचारा अंशुल| एक
तरफ माँ का प्यार और दूसरी ओर पत्नी के प्यार की मार, अब उसके लिए असहनीय
हो चुकी थी| आखिकार एक हँसता खेलता परिवार दो भागों में बंट गया और मोहन बाबू के बुढापे की लाठी भी उनसे दूर हो गई| बुढापे में पूरे घर का बोझ अब
मोहन बाबू और सुशीला के कन्धों पर आ पड़ा| उनका शरीर तो धीरे धीरे साथ देना छोड़ रहा था, कई तरह की बीमारियों ने उन्हें घेर लिया था, उपर से दोनों भावनात्मक रूप से भी टूटने लगे| दिन भर बस अंशुल की बाते ही करते रहते ओर उसे याद करके आंसू बहाते रहते| उधर बेचारा अंशुल भी माँ बाप से
अलग हो कर बेचैन रहने लगा, यहाँ तक कि अपने माता पिता के प्रति अपना कर्तव्य पूरा न कर पाने के कारण खुद अपने को ही दोषी समझने लगा और इसी
कारण से पति पत्नी के रिश्ते में भी दरार आ गई| समझ में नही आ रहा था की आखिकार दोष किसका है? रूपा ससुराल से अलग हो कर भी दुखी ही रही| यही सोचती रहती अगर मेरी सास ने मुझे दिल से बेटी माना होता तो हमारे परिवार में सब खुश होते| उधर सुशीला अलग परेशान| वह उन दिनों के बारे
सोचती जब वह बहू बन कर अपने ससुराल आई थी, उसकी क्या मजाल थी कि वह अपनी सास से आँख मिला कर कुछ कह भी सके, लेकिन वह भूल गई थी कि उसमे और रूपा में एक पीढ़ी का अंतर आ चुका है| उसे अपनी सोच बदलनी होगी, बेटा तो उसका
अपना है ही वह तो उससे प्यार करता ही है, उसे रूपा को माँ जैसा प्यार देना होगा अपनी सारी  दिल की बाते बिना अंशुल को बीच में लाये सिर्फ रूपा
ही के साथ बांटनी होगी| उसे रूपा को  अपनाना होगा, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक रूप से उसका साथ देना होगा| देर से आये दरुस्त आये| सुशीला को अपनी गलती का अहसास हो चुका  था और वह अपने घर से निकल  पड़ी रूपा को
मनाने|
            - रेखा जोशी
परिचय
रेखा जोशी
जन्म : 21 जून 1950 ,अमृतसर
शिक्षा : एम् एस सी [भौतिक विज्ञान] बी एच यू
आजीविका : अध्यापन, के एल एम् डी एन कालेज फार वीमेन, फरीदाबाद
हेड आफ डिपार्टमेंट, भौतिकी विभाग [रिटायर्ड]
कार्यकाल में आल इण्डिया रेडियो, रोहतक से विज्ञान पत्रिका के अंतर्गत अनेक बार वार्ता प्रसारण, कई जानी मानी हिंदी की मासिक पत्रिकाओं में लेख
एवं कहानियों का प्रकाशन।
अन्य गतिविधिया :
1- जागरण जंक्शन.काम पर ब्लॉग लेखन
२- ओपन बुक्स आन लाइन पर ब्लॉग लेखन
३- गूगल ओशन आफ ब्लीस  पर रेखा जोशी .ब्लाग स्पॉट.काम पर लेखन
४- कई इ पत्रिकाओं में प्रकाशन
(यहरचनानिर्झर टाइम्स के 15 जुलाई, 2013 के अंक में प्रकाशित है।)

No comments:

Post a Comment

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...