Wednesday 30 October 2013

देखता हूँ अंधेरे में अंधेरा


- नरेश सक्सेना 

लाल रोशनी न होने का अंधेरा

नीली रोशनी न होने के अंधेरे से
अलग होता है
इसी तरह अंधेरा
अंधेरे से अलग होता है।

अंधेरे को दोस्त बना लेना आसान है
उसे अपने पक्ष में भी किया जा सकता है
सिर्फ उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
भरोसा रोशनी पर तो हरगिज़ नहीं
हरी चीज़ें लाल रोशनी में
काली नज़र आती हैं
दरअसल चीज़ें
खुद कुछ कम शातिर नहीं होतीं
वे उन रंगों की नहीं दिखतीं
जिन्हें सोख लेती हैं
बल्कि उन रंगों की दिखाई देती हैं
जिन्हें लौटा रही होती हैं
वे हमेशा
अपनी अस्वीकृति के रंग ही दिखाती हैं

औरों की क्या कहूं
मेरी बायीं आंख ही देखती है कुछ और
दायीं कुछ और देखती है
बायां पांव जाता है कहीं और
दायां, कहीं और जाता है
पास आओ दोस्तों अलग करें
सन्नाटे को सन्नाटे से
अंधेरे को अंधेरे से और
नरेश को नरेश से।

Monday 14 October 2013

प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा की कविता

हिंदी दिवस 


जो अनुभूतियां 
कभी हम जीते थे 
अब उन्हीं के 
स्मृति कलश सजाकर
प्रतीक रूप में चुन चुनकर
नित दिवस मनाते हैं

परम्परा तो स्वस्थ है
भावनाओं के 
इस रेगिस्तान में
इसी बहाने
मंद बयार का एहसास
ये दिवस दे जाते हैं।


 
          प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा 

Tuesday 8 October 2013

शशि पुरवार की लघुकथा

 मानसिक पतन 
       भोपाल जाने के लिए बस जल्दी पकड़ी और  आगे की सीट पर सामान रखा था कि  किसी के जोर-जोर से  रोने की आवाज आई, मैंने देखा  एक भद्र महिला छाती पीट -पीट  कर जोर-जोर से रो रही थी.
"
मेरा बच्चा मर गया...हाय क्या करूँ ........ कफ़न के लिए भी पैसे नहीं हैंमदद करो बाबूजी! कोई तो मेरी मदद करो! मेरा बच्चा ऐसे ही पड़ा है घर पर......हाय मै  क्या करूँ!"
       उसका करूण  रूदन सभी के  दिल को बैचेन कर रहा था, सभी यात्रियों  ने पैसे  जमा करके उसे दिए,
"
बाई, जो हो गया उसे नहीं बदल सकते, धीरज रखो." 
"
हाँ बाबू जी, भगवान आप सबका भला करे. आपने एक दुखियारी की मदद की".....
       ऐसा कहकर वह वहां से चली गयी. मुझसे रहा नहीं गया. मैंने सोचा पूरे  पैसे देकर मदद कर  देती हूँ, ऐसे समय तो किसी के काम आना ही चाहिए. जल्दी से पर्स लिया और  उस दिशा में भागी जहाँ वह महिला गयी थी. पर जैसे ही बस के पीछे की दीवाल के पास  पहुँची तो कदम वहीं रूक गए.
       दृश्य ऐसा था कि  एक मैली चादर पर एक6-7 साल का बालक बैठा था और कुछ खा रहा था. उस  महिला ने पहले अपने आंसू पोछेबच्चे की प्यारी सी मुस्कान के साथ बलैयां ली, फिर सारे पैसे गिने और  अपनी पोटली को  कमर में खोसा फिर  बच्चे से बोली- "अभी आती हूँ यहीं बैठना, कहीं नहीं जाना" और पुनः उसी  रूदन के साथ दूसरी बस में चढ़ गयी.
       मैं अवाक् सी देखती रह गयी   थके क़दमों से पुनः अपनी सीट पर आकर  बैठ गयी. यह नजारा नजरो के सामने से गया ही नहीं. लोग  कैसे - कैसे हथकंडे अपनाते है भीख मांगने के लिए. बच्चे की इतनी बड़ी  झूठी कसम भी खा लेते है. आजकल लोगो की मानसिकता में कितना पतन गया है .
         

                                           ------शशि पुरवार


                                         


जलगाँव (महाराष्ट्र)
पिन-- 425001 

Friday 4 October 2013

संकलन

सभी मित्रों को मेरा नमस्कार!
आज आपके समक्ष कुछ लिंक्स लेकर उपस्थित हूँ. तो देखिये, आज के लिंक्स-


28 सितम्बर : 46 वीं पुण्य तिथि पर विशेष -विनोद साव (अमर किरण में 28 सितम्बर 1989 को प्रकाशित) साहित्यकार का सबसे अच्छा...


लाशों पर टेबुल सजे, बैठे भारत पाक | 
काली कॉफ़ी पीजिये, कट जाने दो नाक | 
कट जाने दो नाक, करें हमले वे दैनिक | 
मरती जनता आम, मरें...


मानव शरीर में स्थित बहतर हजार नाड़ियों का उदगम केन्द्र " नाभिचक्र" का योग और आयुर्वेद में बड़ा महत्व है ! नाभिमण्डल हमारे...


तीन कुशाओं को बाँधकर ग्रन्थी लगाकर कुशाओं का अग्रभाग पूर्व में रखते हुए दाहिने हाथ में जलादि लेकर संकल्प पढ़ें।...


बत्तख और भैंस/बाल कहानी: तालाब की लहराती लहरों में किलकारियां करती हुई भैंस को देख पास में तैरती बत्तख ने पूछा- ''बहन आज बहुत खुश लग रही हो,क्या बात...


आज बस इतना ही!
नमस्कार!

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...