Tuesday 8 October 2013

शशि पुरवार की लघुकथा

 मानसिक पतन 
       भोपाल जाने के लिए बस जल्दी पकड़ी और  आगे की सीट पर सामान रखा था कि  किसी के जोर-जोर से  रोने की आवाज आई, मैंने देखा  एक भद्र महिला छाती पीट -पीट  कर जोर-जोर से रो रही थी.
"
मेरा बच्चा मर गया...हाय क्या करूँ ........ कफ़न के लिए भी पैसे नहीं हैंमदद करो बाबूजी! कोई तो मेरी मदद करो! मेरा बच्चा ऐसे ही पड़ा है घर पर......हाय मै  क्या करूँ!"
       उसका करूण  रूदन सभी के  दिल को बैचेन कर रहा था, सभी यात्रियों  ने पैसे  जमा करके उसे दिए,
"
बाई, जो हो गया उसे नहीं बदल सकते, धीरज रखो." 
"
हाँ बाबू जी, भगवान आप सबका भला करे. आपने एक दुखियारी की मदद की".....
       ऐसा कहकर वह वहां से चली गयी. मुझसे रहा नहीं गया. मैंने सोचा पूरे  पैसे देकर मदद कर  देती हूँ, ऐसे समय तो किसी के काम आना ही चाहिए. जल्दी से पर्स लिया और  उस दिशा में भागी जहाँ वह महिला गयी थी. पर जैसे ही बस के पीछे की दीवाल के पास  पहुँची तो कदम वहीं रूक गए.
       दृश्य ऐसा था कि  एक मैली चादर पर एक6-7 साल का बालक बैठा था और कुछ खा रहा था. उस  महिला ने पहले अपने आंसू पोछेबच्चे की प्यारी सी मुस्कान के साथ बलैयां ली, फिर सारे पैसे गिने और  अपनी पोटली को  कमर में खोसा फिर  बच्चे से बोली- "अभी आती हूँ यहीं बैठना, कहीं नहीं जाना" और पुनः उसी  रूदन के साथ दूसरी बस में चढ़ गयी.
       मैं अवाक् सी देखती रह गयी   थके क़दमों से पुनः अपनी सीट पर आकर  बैठ गयी. यह नजारा नजरो के सामने से गया ही नहीं. लोग  कैसे - कैसे हथकंडे अपनाते है भीख मांगने के लिए. बच्चे की इतनी बड़ी  झूठी कसम भी खा लेते है. आजकल लोगो की मानसिकता में कितना पतन गया है .
         

                                           ------शशि पुरवार


                                         


जलगाँव (महाराष्ट्र)
पिन-- 425001 

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