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Tuesday 7 April 2015

सुनो मुझे भी- जगदीश पंकज

नवगीत के शिखर हस्ताक्षर डॉ। देवेन्द्र शर्मा इंद्रके अनुसार: जगदीश पंकज के पास भी ऐसी बहुत कुछ कथ्य सम्पदा है जिसे वे अपने पाठकों तक संप्रेषित करना चाहते हैं। ऐसा आग्रह वह व्यक्ति ही कर सकता है जिसके पास कहने के लिए कुछ विशेष हो, जो अभी तक किसी ने कहा नहीं हो- अस्ति कश्चित वाग्विशेष:की भांति। यहाँ मुझे महाभारत की एक और उक्ति सहज ही याद आ रही है 'ऊर्ध्वबाहु: विरौम्यहम् न कश्चित्छ्रिणोतिमाम्मैं बाँह उठा-उठाकर चीख रहा हूँ किन्तु मुझे कोई  सुन नहीं रहा।

मुझे प्रतीत होता है कि इन नवगीतों में सर्वत्र रचनात्मक सद्भाव की परिव्याप्ति इसलिए है कि कवि अपनी बात समय और समाज को सामर्थ्य के साथ सुना ही नहीं मनवा भी सका है। शून्य से आरंभ कर निर्धारित लक्ष्य तक पहुँचाने का संतोष जगदीश जी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व दोनों में बिम्बित है। इंद्र जी ने ठीक ही कहा है: प्रस्तुत संग्रह एक ऐसे गीतकार की रचना है जो आत्मसम्मोहन की भावना से ग्रस्त न होकर बृहत्तर सामाजिक विसंगतियों के विरुद्ध संघर्षरत है, जो मानवीय आचरण की समरसता के प्रति आस्थावान है, जो हर किस्म की गैरबराबरी के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करता है और जो अपने शब्दों में प्रगति की आग्नेयता छिपाए हुए है, क्रांतिधर्म होकर भी जो लोकमंगल का आकांक्षी है।

जगदीश जी वर्तमान को समझने, बूझने और अबूझे से जूझने में विश्वास करते हैं और नवगीत उनके मनोभावों की अभिव्यक्ति का माध्यम बनता है-

गीत है वह
जो सदा आँखें उठाकर
हो जहाँ पर भी
समय से जूझता है

अर्ध सत्यों के
निकलकर दायरों से
जिंदगी की जो
व्यथा को छू रहा है
पद्य की जिस
खुरदुरी झुलसी त्वचा से
त्रासदी का रस
निचुड़कर चू रहा है
गीत है वह
जो कड़ी अनुभूतियों की
आँच से टेढ़ी
पहेली बूझता है।

त्रैलोक जातीय छंद में रचित इस नवगीत में कथ्य की प्रवहमानता, कवि का मंतव्य, भाषा और बिम्ब  सहजग्राह्य हैं। इसी छंद का प्रयोग निम्न नवगीत में देखिए-

चीखकर ऊँचे स्वरों में
कह रहा हूँ
क्या मेरी आवाज़
तुम तक आ रही है?

जीतकर भी
हार जाते हम सदा ही
यह तुम्हारे खेल का
कैसा नियम है
चिर-बहिष्कृत हम रहें
प्रतियोगिता से
रोकता हमको
तुम्हारा हर कदम है

क्यों व्यवस्था
अनसुना करते हुए यों
एकलव्यों को
नहीं अपना रही है

साधनसंपन्नों द्वारा साधनहीनों की राह में बाधा बनने की सामाजिक विसंगतियाँ महाभारत काल से अब तक ज्यों की त्यों हैं। कवि को यथार्थ को यथावत कहने में कोई संकोच या डर नहीं है,
जैसा सहा, वैसा कहा-

कुछ भी कभी
अतिशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं

आकाश के परिदृश्य में
निर्जल उगी है बादली
मेरी अधूरी कामना भी
अर्धसत्यों ने छली
सच्चा कहा, अच्छा कहा

इसमें मुझे
संशय नहीं
मुझको किसी का
भय नहीं

स्थाई में त्रैलोक और अन्तर में यौगिक छंद का सरस समायोजन करता यह संदेशवाही नवगीत सामायिक परिस्थितियों और परिदृश्य में कम शब्दों में अधिक बात कहता है।
जगदीश जी की भाषिक पकड़ की बानगी जगह-जगह मिलती है। मुखपृष्ठ पर अंकित गौरैया और यह नवगीत एक-दूसरे के लिये बने प्रतीत होते हैं। कवि की शब्द-सामर्थ्य की जय बोलता यह नवगीत अपनी मिसाल आप है-

डाल पर बैठी चिरैया
कूकती है

चंद दानों पर
नज़र है पेट की
पर गुलेलों में बहस
आखेट की

देखकर आसन्न खतरे
हूकती है

जब शिकारी कर रहे हों
दंत-नख पैने
वह समर सन्नद्ध अपने
तानकर डैने

बाज की बेशर्मियों पर
थूकती है

यहाँ कवि ने स्थाई में त्रैलोक, प्रथम अंतरे में महापौराणिक तथा दुसरे अंतरे में रौद्राक छंदों का सरस-सहज सम्मिलन किया है। नवगीतों में ऐसे छांदस प्रयोग कथ्य की कहन को स्वाभाविकता और सम्प्रेषणीयता से संपन्न करते हैं।
समाज में मरती संवेदना और बढ़ती प्रदर्शनप्रियता  कवि को विचलित करती है, दो शब्दांकन देखें-

चीख चौंकाती नहीं, मुँह फेर चलते
देखकर अब बेबसों को लोग

घाव पर मरहम लगाना भूलकर अब
घिर रहे क्यों ढाढ़सों में लोग

नूतन प्रतिमान खोजते हुए
जीवन अनुमान में निकल गया

छोड़कर विशेषण सब
ढूँढिए विशेष को
रोने या हँसने में
खोजें क्यों श्लेष को?

आग में कुछ चिन्दियाँ जलकर
रच रहीं हैं शब्द हरकारे
मत भुनाओ
तप्त आँसू, आँख में ठहरे
कैसा मौसम है
मुट्ठी भर आँच नहीं मिलती
मिले, विकल्प मिले तो
सीली दियासलाई से
आहटें, संदिग्ध होती जा रहीं
यह धुआँ है
या तिमिर का आक्रमण

ओढ़ता मैं शील औशालीनता
लग रहा हूँ आज
जैसे बदचलन

इस तरह की अभिव्यक्तियाँ पाठक / श्रोता के मन को छूती ही नहीं बेधती भी हैं।

इन नवगीतों में आत्मालोकन, आत्मालोचन और आत्मोन्नयन के धागे-सुई-सुमनों से माला बनायी गयी है। कवि न तो अतीत के प्रति अंध श्रृद्धा रखता है न अंध विरोध, न वर्त्तमान को त्याज्य मनाता है न वरेण्य, न भविष्य के प्रति निराश है न अति आशान्वित, उसका संतुलित दृष्टिकोण अतीत की नीव पर निरर्थक के मलबे में सार्थक परिवर्तन कर वर्तमान की दीवारें बनाने का है ताकि भविष्य के ज्योतिकलश तिमिर का हरण कर सकें। वह कहता है:
बचा है जो
चलो, उसको सहेजें
मिटा है जो उसे फिर से बनाएँ
गए हैं जो
उन्हें फिर ध्यान में ले
तलाशें फिर नयी संभावनाएँ
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गीत- नवगीत संग्रह - सुनो मुझे भी, रचनाकार- जगदीश पंकज, प्रकाशक- निहितार्थ प्रकाशन, एम् आई जी भूतल १, ए १२९ शालीमार गार्डन एक्सटेंशन II, साहिबाबाद, गाज़ियाबाद, प्रथम संस्करण-२०१५ , मूल्य- रूपये १२०/-, पृष्ठ-११२ , समीक्षक- संजीव सलिल

Thursday 19 March 2015

ऐतिहासिक कथानक को सांस्कृतिक समझ से साथ उद्घाटित करता नाटक

         
                     राहुल देव
पुस्तक- सिद्धार्थ (नाटक)
लेखक- राजेन्द्र सिंह बघेल
प्रकाशक- यथार्थ प्रकाशन, नई दिल्ली

‘नाटक, काव्य का एक रूप है। जो रचना श्रवण द्वारा ही नहीं अपितु दृष्टि द्वारा भी दर्शकों के हृदय में रसानुभूति कराती है उसे नाटक या दृश्य-काव्य कहते हैं। नाटक में श्रव्य काव्य से अधिक रमणीयता होती है। श्रव्य काव्य होने के कारण यह लोक चेतना से अपेक्षाकृत अधिक घनिष्ठ रूप से संबद्ध है। नाट्यशास्त्र में लोक चेतना को नाटक के लेखन और मंचन की मूल प्रेरणा माना गया है।‘ नाटक की यह परिभाषा उदृत करने का उद्देश्य मात्र इतना है कि हिंदी साहित्य में नाटकों की रचना की एक समृद्ध परम्परा रही है लेकिन आज के समय में इस विधा में साहित्यकारों की रूचि घटती सी जा रही है| सब कविता, कहानी, उपन्यास के पीछे भाग रहे हैं जिससे साहित्य की अन्य विधाएँ उपेक्षित होती हैं| नाटक विधा भी उनमें से एक है, आज बहुत कम नाटक लिखे जा रहे हैं| हमें जानना चाहिए कि नाटक क्या है, नाटक की साहित्यिक परम्परा क्या है, उसके साहित्यिक मूल्य क्या हैं| ऐसे समय में इस समीक्ष्य किताब का मेरे हाथ में आना एक सुखद एवं स्वागतयोग्य प्रस्तुति है|

अभी तक बुद्ध के जीवन पर लिखने वाले ज्यादातर लेखकों का दृष्टिकोण साम्प्रदायिक रहा है लेकिन इस नाटक को पढ़ते हुए लेखक की ऐतिहासिक तथ्यों की बेहतरीन सांस्कृतिक समझ का आभास होता है| लेखक राजेन्द्र सिंह बघेल मेरे लिए एक नया नाम थे लेकिन जब मैंने किताब में उनका परिचय पढ़ा तो पता चला कि वे तो सूदूर अंचल में रहकर लिखने वाले एक सिद्धहस्त रचनाकार हैं| उन्होंने ऐतिहासिक विषय के अलावा सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक विषय पर भी नाटक लिखे हैं| तमाम भीड़-भाड़, जोड़-तोड़ और ख्याति से दूर रहकर समर्पण भाव से लेखन करने वाले ऐसे लेखकों को एक नए प्रकाशन द्वारा पाठकों के सामने लाए जाने का कार्य निश्चित रूप से सराहनीय है|

महात्मा बुद्ध का जीवन बहुत विशाल है| लेखक ने इसे लघु नाटक कहा है लेकिन यह लघु नाटक नहीं है| प्रस्तुत पुस्तक में नाटक के छोटे-बड़े 55 दृश्यों के सहारे बुद्ध के लगभग पूरे जीवन को समेटने की कोशिश की गयी है| नाटक प्रथम दृश्य में देवदत्त वाले हंस प्रकरण से शुरू होकर पचपनवें दृश्य बुद्ध के अंतिम उपदेश देने तक जाता है| अच्छी बात यह है कि लेखक ने बुद्ध को एक साधारण मनुष्य के रूप में दिखाया है किसी चमत्कारी या अलौकिक रूप में नहीं|


सिद्धार्थ का जन्म वि.पू. 505 समझा जाता है| वह उन्तीस वर्ष के थे, जब उन्होंने घर छोड़ा| उन्होंने छह वर्ष कठिन तपस्या की, तब बुद्ध हुए| फिर उन्होंने पैंतालीस वर्ष घूम-घूमकर उपदेश दिए| बुद्ध का अहिंसा, प्रेम, करुणा और सत्य पर आधारित जीवन दर्शन आज के हिंसा, घृणा और बेचैनी भरे जीवन का एक हल है| यों यह लम्बा जीवन विक्रम पूर्व 426 में पूरा हुआ और उसके बाद बौद्ध धर्म अपने रूप बदलता हुआ लगभग 1500 वर्ष भारत में रहा| बुद्ध के समय में समाज विषम था| वर्ण व्यवस्था और दास प्रथा अपने चरम पर थी| कुल, महाकुल, उपकुल, गण, आर्य-अनार्य के मध्य निरंतर संघर्ष होता रहता था| वास्तव में संस्कृतियों के उस संक्रमण काल में बुद्ध का जन्म होना एक अनिवार्य आवश्यकता सी बन गया था| नाटक के दूसरे दृश्य में जब सिद्धार्थ अपने कक्ष में विचारमग्न बैठे होते हैं तब वह महारानी से कहते हैं, “माँ, शास्त्र मुझे झूठे लगते हैं| उनका ज्ञान उस रहस्य को उद्घाटित नहीं करता जो जीवन-मरण के उद्देश्य को बताता है| मां शास्त्रों में ऐसा कुछ भी नहीं जो शांति प्रदान कर सके|” जब महारानी प्रत्युत्तर में सिद्धार्थ से कहती हैं कि, “...वीतराग मत बनो|...सांसारिक सुखों में जीवन की खोज़ करो|” तो सिद्धार्थ कितना स्पष्ट और सही तर्क देते हैं कि, “माँ! ये सुख क्षणिक हैं| इनमें जीवन की खोज़ करना व्यर्थ है|...” उन्हें सृष्टि के नियम कहकर या विधि का विधान कहकर बताई जाने वाली चीज़ें भ्रमित करती हैं| वह इस सत्य को तलाशने के लिए अन्दर और बाहर से बेचैन हो उठते हैं| आठवें दृश्य के अंतिम संवाद में वह कहते हैं, “...वाह रे संसार! माया का प्रपंच कितना भयंकर है| इससे बचकर निकल पाना सचमुच ही बहुत कठिन है|” उसके बाद के दृश्यों में उनके जीवन में यशोधरा का प्रवेश, सिद्धार्थ के मार्ग में क्रमशः बीमार, बूढ़े और मृत व्यक्ति का पड़ना और उनका व्यथित होना, पुत्र राहुल का जन्म और उसके बाद सिद्धार्थ का घर छोड़कर ज्ञान की तलाश में निकल पड़ना आदि प्रसंगों को क्रमानुसार जगह दी गयी है जिससे नाटक अपनी सम्पूर्णता की ओर बढ़ता है|

नाटक की प्रधान नारी पात्र यशोधरा भी उतना ही कहती और बोलती है जितना कि उस युग में नारी कह और बोल सकती थी| वह एक आदर्श नारी पात्र है| सिद्धार्थ से विवाह के बाद वह अपने पति से पूर्ण सहानुभूति रखती है| पन्द्रहवें दृश्य में सिद्धार्थ अपने मन की व्यथा को यशोधरा के सामने रखते हुए कहते हैं, “...यशोधरा! मैं यह जानना चाहता हूँ कि जीवन और मृत्यु का यह व्यापार चक्र कौन से रहस्य से घिरा हुआ है और माया के आदि गहन आवरण को विदीर्ण करके कैसे अपने ज्ञान चक्षुओं को प्रकाशित किया जा सकता है|” यशोधरा अपने स्वामी की जीवन से पलायन की समर्थक नहीं है लेकिन फिर भी वह कहती है कि अगर वे जाएँ तो उसे भी अपने साथ ले चलें| वह अपनी सीमा को समझती है लेकिन वह पति धर्म और अतिशय प्रेम से विवश होती है| उसे पता है कि उसका पति कोई साधारण इन्सान नहीं है| उसका जन्म तो मानवता का उद्धार करने के लिए हुआ है| दृश्य तीस में जब सिद्धार्थ आलार कलाम के आश्रम में दीक्षित होते हैं परन्तु फिर भी उन्हें अपने प्रश्नों का उत्तर प्राप्त नहीं हो पाता, तब वे अपने गुरु से यह सारगर्भित बात कहते हुए पुनः ज्ञान की खोज़ में अपने चार शिष्यों को साथ लेकर निकल जाते हैं, “गुरुदेव; मैं परम्पराओं के प्रति निष्ठावान हूँ परन्तु उनकी दासता स्वीकार नहीं कर सकता| किसी भी वस्तु का बिना विचारे पूरी तरह अनुसरण करना जीवन के प्रतिकूल है| मैं यह नहीं मानता कि युगों के इतिहास से बनी परम्पराएँ अंतिम सत्य, अपरिवर्तनीय और निरपेक्ष हैं| हाँ, इतना अवश्य मानता हूँ कि अतीत के अनुभव पथ पर पैर रखकर हम भविष्य के अज्ञात को पाने में सफलता पा सकते हैं...बशर्तें अतीत का वह पथ आत्मपुकार के प्रतिकूल न हो|” इसके कुछ समय बाद सिद्धार्थ को सुजाता की खीर खाने के बाद निरंजना नदी के तट पर पीपल के पेड़ के नीचे ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह सिद्धार्थ से महात्मा बुद्ध बन जाते हैं| उसके बाद वह जगह-जगह लोगों के मध्य अपने उपदेश देते हैं और एक व्यापक जनचेतना का उदय होता है| नाटक में कुछ अन्य प्रसंगों के साथ पचपनवें दृश्य में उनके अंतिम उपदेश “अप्प दीपो भव” यानि अपनी मुक्ति की चाह में किसी और पर निर्भर होने के बजाय खुद के दीपक स्वयं बनो, कहकर नाटक का पटाक्षेप होता है|

वास्तव में किसी भी रचना की सम्पूर्णता कथ्य और शिल्प के सानुपातिक कलात्मक संयोजन में निहित रहती है। हिन्दी नाटकों में इन दोनों तत्वों के बीच तालमेल की स्थिति पर यदि विचार किया जाए तो हिन्दी के बहुत कम नाटक इस स्तर तक ऊँचे उठ पाते हैं। जब तक रंग जगत में वे सफल नहीं होते, उन्हें अर्थवान साबित नहीं किया जा सकता। यह एक सुखद संयोग है कि हिन्दी रंगमंच व्यापक स्तर पर राष्ट्रीय रंगमंच की भूमिका में क्रियाशील है। आज के हिन्दी नाटकों की उपलब्धि पर विचार किया जाए तो यह निष्कर्ष निकलता है कि हिन्दी नाटक ने अपनी निरर्थकता और कलाहीनता के घेरे को तोड़कर उल्लेखनीय सर्जनात्मकता प्राप्त करने की दिशा में कदम बढ़ाया है। और अब नाट्यलेखन केवल सतही सामाजिक उद्देश्यपरकता के आसपास चक्कर नहीं काटता बल्कि गहरी या मूलभूत मानवीय अनुभूति या स्थितियों का सन्धान करता है। इन नाटकों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे जीवन और समाज की विसंगतियों को उभारते हैं, पीड़ा संत्रास और अजनबीपन के बीच आज के मानव की दयनीय नियति को रेखांकित करते हैं। स्वतंत्रता के बाद नाटक आधुनिक युगबोध के साथ ही जुड़ता नहीं दिखाई देता, वरन रंगशिल्प के प्रति अधिक जागरूक भी हो गया है। नाटककार राजेन्द्र सिंह बघेल भी ऐतिहासिक कथानक के साथ चलते हुए हमेशा यह ध्यान में रखते हैं कि मंचन के समय व दृश्य की समाप्ति के बाद दर्शक पर अंतिम इम्प्रैशन क्या जाए| ऐतिहासिक विषय को साथ लेकर नाटक को उसके तमाम टूल्स के साथ युगीन आवश्यकता की संवेदना में ढालना किसी भी नाटककार के लिए एक कठिन चुनौती साबित होता है| प्रस्तुत पुस्तक में मुझे अन्य नाट्य कृतियों की तरह यह कमी कहीं दिखाई नहीं दी है|

इस पूरे नाटक में पूरी नाटकीयता के साथ भरपूर पठनीयता भी मौजूद है| इसे पढ़ते हुए पाठक स्वयं को रंगमंच का एक दर्शक समझने लगता है, जैसे लगता है कि मानो पूरा नाटक उसकी आँखों के सामने ही चल रहा हो| यह एक अच्छे नाटक की विशेषता है| हर जगह नाटककार ने सधी हुई सीधी-सरल भाषा-शैली का प्रयोग किया है और यथासंभव अपने को कठिन शब्दों के प्रयोग से बचाया है| नाटक में जो दृश्य छोटे हो सकते हैं उन्हें छोटा रखा गया है और जो थोड़ा बड़े हो सकते हैं उन्हें वैसा ही रखा गया है, इससे गति बनी रहती है| सीमित पात्रों के माध्यम से पूरे वातावरण का बड़ा ही जीवंत चित्रण करने में नाटककार को पूर्ण सफलता मिली है| कुल मिलाकर कहें तो यह एक पठनीय और सहेजने योग्य पुस्तक है|




सम्पर्क- 9/48 साहित्य सदन, कोतवाली मार्ग, महमूदाबाद (अवध) सीतापुर (उ.प्र. 261203
ईमेल- rahuldev.bly@gmail.com
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केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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