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Monday 26 December 2016

मनोहर अभय के नवगीत

    (1)
 और तरसाते रहे

कुनवा परस्ती में लगी थी धूप बूढ़ी
कुनमुने किसलय  ठगे
फूल थे बासी / और मुरझाते रहे .

नवगीत लिखना चाहते
लिख गए कव्वालियाँ
शर्मसारी पर निरंतर
पिट रही  थीं तालियाँ
वे सुरक्षा पंक्ति  में / और मुस्काते रहे

लम्बे समय के तीर्थधर्मा
रात दिन चलते रहे
परिव्राजकों से पूछिए
आपको छलते रहे  
 उपलब्धियों के स्वांग से / और बहकाते रहे.

इंद्रा धनु विश्वास के
निमिष भर हरषे नहीं
आषाढ़ के बादल मगर
बूँद भर बरसे नहीं
प्यास में पपीहे जले / और तरसाते रहे.

   (2)
फीके कथानक

 एक गणिका एक प्यासा
दूध में घुलता बताशा
ये कथानक लगते नहीं हैं
           आज नीके.
 विधुमुखी तुमको कहूँ
आकाश स्वामी तुम मुझे
रूपक पुराने/ पहचाने हुए
      लगते बहुत हैं
         आज फीके .

 मेहनत मशक्कत चाहती
ये हमारी जिंदगी
वक्त के संग दौड़ना
बन गया है बंदगी
माँग तुम बैठी सम्हारो 
करधनी कंगन लिए
चौदवीं का चाँद  हमको
बादलों में कहाँ दीखे.

तोतली भाषा पढ़ो
किसमिसी इस धूप में
बैठकर स्वेटर बुनो
गलघुटी गुड़िया हमारी
माँगती नवजात टीके.

दूध मथनी में भरा
मिसरी सहित माखन धरा
बिल्लियों की मार से
गिर गए असहाय छींके .

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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