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Friday 8 August 2014

हमारे रचनाकार- वीनस केसरी

वीनस केसरी 
जन्म तिथि - १ मार्च 1985
शिक्षा - स्नातक
संप्रति - पुस्तक व्यवसाय व प्रकाशन (अंजुमन प्रकाशन)
प्रकाशन - प्रगतिशील वसुधाकथाबिम्बअभिनव प्रयासगर्भनालअनंतिम,गुफ्तगूविश्व्गाथा आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में से से पर ग़ज़ल,गीत व दोहे का प्रकाशन हरिगंधाग़ज़लकारवचन आदि में ग़ज़ल पर शोधपरक लेख प्रकाशित
विधा - ग़ज़लगीत छन्द कहानी आदि
प्रसारण - आकाशवाणी इलाहाबाद व स्थानीय टीवी चैनलों  से रचनाओं का प्रसारण
पुस्तक - अरूज़ पर पुस्तक “ग़ज़ल की बाबत” प्रकाशनाधीन
विशेष - उप संपादकत्रैमासिक 'गुफ़्तगू', इलाहाबाद
(अप्रैल २०१२ से सितम्बर २०१३ तक)
सह संपादक नव्या आनलाइन साप्ताहिक पत्रिका
(जनवरी २०१३ से अगस्त २०१३ तक)
पत्राचार - जनता पुस्तक भण्डार942आर्य कन्या चौराहा,  मुट्ठीगंजइलाहाबाद -211003

मो. -  (0)945 300 4398 (0)923 540 7119

वीनस की गज़लें


ग़ज़ल-१
दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं
फैसले को खापकी कुछ पगड़ियाँ आने लगीं

किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का
अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं

आरियाँ खुश थीं कि बस दो चार दिन की बात है
सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं

उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में
दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं

बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया
साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं

है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार
आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं

हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ
बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं

शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़
जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं

उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें
और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं

ग़ज़ल-२
उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |
झूठ को लेकिन दिखा सकता है पैकर आइना |

शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है,
पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |

गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ,
कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |

आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है,
जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |

मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया,
रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |

अपना अपना हौसला है, अपने अपने फैसले,
कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |

ग़ज़ल-३
प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो
आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो

उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे
तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो

आपका दिल है तो जैसा चाहिए कीजै सुलूक
परा ज़रा यह देखिए इसमें कोई रहता न हो

पत्थरों की ज़ात पर मैं कर रहा हूँ एतबार
अब मेरे जैसा भी कोई अक्ल का अँधा न हो

ज़िंदगी से खेलने वालों जरा यह कीजिए
ढूढिए ऐसा कोई जो आखिरश हारा न हो

ग़ज़ल-४
छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या
इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या

ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या
कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या

है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या
इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या

मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है
काट ली जायेगी ज़बान भी क्या

धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को
लूट लेंगे ये सायबान भी क्या

इस क़दर जीतने की बेचैनी
दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या

अब के दावा जो है मुहब्बत का
झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या

मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं
मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या

ग़ज़ल-५.
ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं
गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं

मैडम बोली थी घर का नक्शा खींचो
बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं

आईनों पर क्या गुजरी, क्यों ये सब,
पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं

धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है
हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं

जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत
हम कितना सामान बनाए बैठे हैं

वो चाहें तो और कठिन हो जाएँ पर
हम खुद को आसान बनाए बैठे हैं

आप को सोचें दिल को फिर गुलज़ार करें
क्यों खुद को वीरान बनाए बैठे हैं
http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1004&rid=7






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