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Thursday 7 May 2015

ग़ज़ल में मात्राओं की गणना:

संदीप द्विवेदी (वाहिद काशीवासी)

आज के समय में हमारे देश में काव्य की अनेक विधाएँ प्रचलित हैं जो हमें साहित्य के रस से सिक्त कर आनंदित करती हैं। इनमें कुछ इसी देश की उपज हैं तो कुछ परदेश से भी आई हैं और यहाँ आकर यहाँ के रंग-ढंग में ढल गई हैं। ऐसी ही एक अत्यंत लोकप्रिय काव्य विधा है ग़ज़ल। हमारे समूह में ग़ज़ल की मात्राओं की गणना पर चर्चा करने के लिए मुझे आमंत्रित किया गया है अतः मैं बिना किसी लाग-लपेट के अपनी बात आरंभ करता हूँ।
ग़ज़लें कहने के लिए कुछ निश्चित लयों अथवा धुनों का प्रयोग किया जाता है जिन्हें 'बह्र' के नाम से जाना जाता है। अगर आपका लिखा या कहा हुआ काव्य बह्र में बद्ध नहीं है तो उसे ग़ज़ल नहीं माना जा सकता। बह्र में ग़ज़ल कहने के लिए हमें मात्राओं की गणना का ज्ञान होना आवश्यक है जिसे 'तक़्तीअ' कहा जाता है। अगर हम तक़्तीअ करना सीख लेते हैं तो फिर बह्र भी धीरे-धीरे सध जाती है। हिंदी छंदों के विपरीत, जहाँ वर्णिक छंदों (ग़ज़ल भी वर्णिक छंद ही है) गणों के निश्चित क्रम निर्धारित होते हैं और हर मात्रा का अपने स्थान पर होना अनिवार्य होता है, ग़ज़ल की बह्र में मात्राओं की गणना में छूट भी प्राप्त होती है अर्थात् बह्र से सामंजस्य बैठने के लिए कई बार दीर्घ को लघु गिनने की छूट भी प्राप्त होती है (यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ कि मात्रा गणना में मात्रा गिरना किसी नियम के अंतर्गत नहीं आता अपितु यह छूट है)। एक बात और कि यह आलेख छंद और मात्रा गणना से अनभिज्ञ लोगों के लिए उपयोगी नहीं होगा।
हिंदी छंदों के गणों (यथा- यगण, मगण, रगण, जगण आदि) की भाँति ही ग़ज़ल में भी कुछ गण होते हैं, यहाँ अंतर केवल इतना होता है कि बह्र के गणों की मात्राओं में गिरावट भी की जा सकती है जो कि हिंदी छंदों में अनुमत्य नहीं है। उर्दू के कुछ गण (उर्दू में रुक्न) इस प्रकार हैं:
फ़ायलातुन = 2122, मफ़ाईलुन = 1222, फ़ायलुन = 212 आदि।
ग़ज़ल में मात्रा की गणना उच्चारण पर निर्भर करती है और हम सभी को इस बात का बोध है कि उच्चारण का भाषा में कितना महत्वपूर्ण स्थान होता है। हिंदी के वर्णिक छंदों में किसी भी स्थिति में दो लघु मिल कर एक दीर्घ नहीं हो सकते जबकि ग़ज़ल की बह्र में यह सर्वमान्य है। उदाहरण के लिए - अधिक को हिंदी में अ=1 धि=1 क=1 अर्थात् 111 (नगण) गिनेंगे किन्तु ग़ज़ल के नियमानुसार इसकी मात्रा गणना 12 होगी। ग़ज़ल की तक़्तीअ करते समय कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना अत्यंत आवश्यक होता है।
*बिना स्वर के सभी व्यन्जन (क, ख, ग, घ आदि) लघु मात्रिक (1) होते हैं।
*लघु स्वरों (यथा - अ, इ, उ) व अनुनासिक (ँ-चन्द्र बिंदु) के साथ प्रयुक्त व्यन्जन भी लघु मात्रिक ही होते हैं। जैसे सु, नि, भँ आदि।
*दीर्घ स्वरों ( यथा- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ) व अनुस्वार (ं) के साथ प्रयुक्त व्यन्जन दीर्घ मात्रिक होते हैं। जैसे का, पी, जौ, लो, अं आदि।
* किसी भी शब्द में यदि दो लघु मात्रिक व्यन्जन या स्वर उपस्थित हैं तो वे उच्चारण के अनुसार दीर्घ मात्रिक में परिवर्तित हो जाते हैं और यह सदैव होता होता है, उन्हें अपनी सुविधा के अनुसार दो लघु मात्राओं यानी 11 में नहीं गिना जा सकता। यथा - दिल (दि=1+ल=1 दिल=2), तुम (तु=1+म=1 तुम=2) घर (घ=1+र=1 घर=2) तथा जब (ज=1+ब=1 जब=2) इत्यादि। ऐसे ही और शब्द हैं कुछ, पल, रुक, यदि, शव, बद, फिर आदि।
* जिन शब्दों के उच्चारण में दोनों अक्षर अलग-अलग उच्चारित होंगे उन्हें एक दीर्घ (2) न गिन कर दो लघु (11) ही गिनेंगे अन्यथा शब्द का उच्चारण दोषपूर्ण हो जाएगा और उसके अर्थ का अनर्थ भी हो सकता है। जैसे कि - 'अगणित'; इसमें 'अ' तथा 'ग' का अलग-अलग उच्चारण किया जा रहा है एवं 'णित' का उच्चारण एक साथ किया जा रहा है अतः इसकी मात्रा 112 ही होगी और यह किसी भी स्थिति में 22 नहीं हो सकती। इसी प्रकार 'असमय' शब्द को देखें कि यह 112 का मात्रा संयोजन है और अगर इसे 22 करना चाहें तो यह 'अस्मय' हो जाएगा और अर्थ का अनर्थ भी।
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अब मात्राओं को गिराने के विषय में चर्चा करते हैं। ऊपर हम यह देख चुके हैं कि मात्राओं की गणना ग़ज़ल में किस तरह से की जाती है। मात्रा गिराने के बारे में चर्चा करने से पूर्व एक उदाहरण देखते हैं:-
* आप को देख कर देखता रह गया
इसकी मात्रा गणना इस प्रकार से होगी
आ- प- को- दे- ख- कर- दे- ख- ता- रह- ग- या
2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2
इस मिसरे में सभी मात्राएँ उचित हैं और कहीं भी गिराई नहीं गई हैं।
अब इसका अगला मिसरा लेते हैं जिसे मिला कर पूरा शे'र बनता है:
* क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया
क्या- क- हूँ- औ- र- कह- ने- को- क्या- रह- ग- या
2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2- 2- 1- 2
यहाँ भी सभी मात्राएँ अपने उचित वज्न में हैं केवल 'को' छोड़ कर। यहाँ 'को' की मात्रा '2' होनी चाहिए किन्तु इस 'को' की मात्रा को गिराते हुए '1' माना गया है और को का उच्चारण एक हद तक 'कु' के समीप आ गया है। यह इस प्रकार होता है कि - जब किसी बह्र में लघु मात्रा के लिए नियत स्थान पर दीर्घ मात्रा आ जाती है तो कुछ विशेष अक्षरों को हम दीर्घ मात्रा की तरह न पढ़ कर उस पर कम दबाव देते हुए उसे लघु मात्रा की तरह उच्चारित करते हैं। हालाँकि इसके लिए यह भी जानना अत्यंत आवश्यक है कि - किन किन दीर्घ मात्रिकों को गिरा कर लघु मात्रिक की तरह प्रयोग किया जा सकता है; किन शब्दों की मात्रा गिराई जा सकती है और किनकी नहीं; तथा शब्दों में किस स्थान पर मात्रा गिराई जा सकती है और किस स्थान पर नहीं?
* आ, ई, ऊ, ए, ओ के संयोग से बनी दीर्घ मात्रा को गिरा कर लघु किया जा सकता है किन्तु ऐ, औ, अं को किसी भी स्थिति में गिराया नहीं जा सकता हालाँकि अपवाद स्वरूप कुछ को इससे छूट भी प्राप्त है। इन अपवाद में - है, हैं, मैं, और शामिल हैं। सबसे अधिक जो गिराए जाते हैं वे हैं - तो, को, जो, ये, में आदि। साथ ही यह ध्यान रखना भी आवश्यक है कि किसी भी शब्द के अंत का ही दीर्घ गिरता है आरंभ का नहीं। किन्तु कुछ अपवाद वाले शब्द यहाँ भी हैं जिनमें सुविधानुसार आदि या अंत किसी की भी मात्रा गिराई जा सकती है जैसे - कोई, मेरी, तेरी। सबसे अधिक ध्यान देने योग्य बात यह कि किसी भी संज्ञावाचक शब्द और हिंदी के तत्सम शब्दों की मात्रा नहीं गिराई जा सकती। हालाँकि अब कई लोग तत्सम शब्दों की मात्रा भी गिराने लगे हैं और इसे स्वीकार भी किया जाने लगा है कई मंचों पर चर्चा के दौरान यह तथ्य सामने आया है। अब आप सुधिजनों की प्रतिक्रियाएँ आमंत्रित हैं।

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