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Saturday 16 August 2014

सुनो चारुशीला – एक पाठकीय प्रतिक्रिया

संध्या सिंह 

           नरेश सक्सेना के बारे कुछ लिखने की कोशिश इस प्रकार है जैसे नन्हे पौधे  बरगद के बारे में कुछ कहना चाहें या फिर नदियों से समंदर के बारे में पूछा जाए. वे ऐसे रचनाकार हैं जिन्होंने बहुत कम कविताओं में भी बहुत अधिक पाठक बटोरे. नरेश सक्सेना एक ऐसी शख्सियत हैं जो अपना आजीविका धर्म निबाहते हुए जीवन भर बंजर ज़मीन पर खड़े रहे और सीमेंट व कंक्रीट के ठोस धरातल पर खड़े-खड़े जाने कितनी कविताएँ लहलहा दीं अपनी नर्म मुलायम मन की मिट्टी पर. सिविल इंजीनीयरिंग जैसी शुष्क नौकरी इतने लम्बे समय तक करने के बाद भी इन्होंने कविता की नमी बचा कर रखी. यह उनकी एक ऐसी विशेषता है जो उन्हें अन्य कवियों से अलग करती है.
           नरेश सक्सेना की कविता में जो रवानगी है, जो प्रवाह है, जो बहाव है वो मात्र सपाट गति नहीं वरन एक लय है जो पाठक की धड़कन की धक्-धक् के साथ ताल बिठा कर रफ़्तार पकडती है और उठती-गिरती साँसों के साथ फेफड़ों में समा जाती है, अंततः समूची कविता प्राणवायु बन कर लहू में बहने लगती है. उनकी कविताओं में पाठक के साथ एकरूप हो जाने की अद्भुत क्षमता है.
           उनकी काव्यभूमि इतनी उर्वर है कि उनकी एक-एक कविता भावनात्मक धरातल पर वट वृक्ष की तरह खडी नज़र आती है. उनकी कविताओं में बेहद सरल दिखने वाले शब्द एक तिलिस्म तैयार कर देते हैं और न जाने किन-किन गुफाओं, कंदराओं और सरोवरों से ले कर यूँ गुजरते हैं कि पाठक जान ही नहीं पाता कि रास्ता कब समाप्त हुआ. सबसे बड़ी बात कि प्रत्येक कविता अंत में पाठक को स्तब्ध छोड़ देती है. जैसे ‘रंग‘ में उनकी ये पंक्ति-
‘बारिश आने दीजिए  
सारी धरती मुसलमान हो जाएगी‘
आठ पंक्तियों की ये कविता जैसे धर्म निरपेक्षता का एक ग्रन्थ हो गयी. इसी तरह ‘ईश्वर की औकात‘ कविता की आख़िरी पंक्ति-
‘इस तरह वे ईश्वर को उनकी औकात बताते हैं‘
ऐसी लगी जैसे आराम से पढ़ते-पढ़ते कोई खट से अचानक वार करके भाग गया हो. यह किसी भी रचना की सबसे बड़ी सफलता है. इसी क्रम में उनकी ‘मुर्दे‘ कविता को पढ़ना आग से गुज़रना है. उस कविता का अंतिम भाग एक विस्फोट से कम नहीं. वहीं उनकी ‘शिशु’ कविता पलकों में नमी का एहसास करा जाती है-
‘बाद में सीखेगा भाषा
अभी वह अर्थ समझता है
इतनी अबोधता? यह कविता समस्त बुद्धिजीवियों के ऊपर एक करारा तमाचा है.
          
          उनकी कविताओं की एक अलग आवृत्ति है. जब कविता नज़दीक आते-आते पाठक की आवृति से मेल खाती है तो बिजली-सी कौंधती है और फिर पाठक और कविता एक-दूसरे के पूरक हो जाते हैं. नरेश जी की कुछ कविताओं को तो समाप्त करते-करते मुझे लगा जैसे उस कविता और मेरे बीच और कोई भी नहीं और मैं उस कविता के साथ ही सोई-जागी, जैसे कि ‘किले में बच्चे‘. वह कविता मुझे अवाक छोड़ कर ख़त्म हो गई और मैं बाद तक जाने क्या-क्या ढूँढती रही उसमें.
          उनकी ‘पीछे छूटी हुई चीजें‘ कविता को पढ़ते हुए लगा कि क्या कोई बिजली गड़गड़ाने और उसके चमकने के बीच यह सम्बन्ध भी स्थापित कर सकता है?‘ इस कविता का अंत कई बार आपको अचानक रात में चौंक कर उठने पर विवश कर सकता है. ’दरवाज़ा‘ कविता पढ़ते-पढ़ते समान्तर सोच साथ चली कि अनूठे भाव की ये दुनिया कैसे उपजी होगी भीतर?
          चाहे ‘सूर्य’ की औलोकिक विकलांगता साबित करती कविता हो या ‘अन्तरिक्ष से देखने पर’ में धरती के दर्द का सूक्ष्म निरीक्षण या फिर ‘घड़ियाँ‘ में हर घड़ी का हर वर्ग से अलग रिश्ता, इन सब कविताओं में एक बात मूलतः उभर कर आई कि ये रचनाएँ, रचनाएँ नहीं उनकी रगों में बहती मानवीय संवेदनाओं की एक पराकाष्ठा है.
          उनकी कविता ‘पानी क्या कर रहा है‘ एक अलग ही धरातल पर रची गई है| इस कविता में जहाँ एक ओर पानी के जमने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण है वहीँ दूसरी ओर प्रकृति द्वारा पानी के भीतर तैरते जीवन को बचानें की एक जंग जो विज्ञान के नियम भी बदल देती है और चार डिग्री के बाद मछलियों के लिए एक रक्षा कवच बना देती है| अद्भुत तर्क और अनुपम सोच से उपजी यह कविता अंत में ठन्डे पानी में भी जिज्ञासा की एक आग लगा जाती है, जब नरेश लिखते हैं कि-
‘इससे पहले कि ठन्डे होते ही चले जाएँ
हम, चल कर देख लें
कि इस वक्त जब पड़ रही है कड़ाके की ठण्ड
तब मछलियों के संकट की इस घड़ी में
पानी क्या कर रहा है‘
और अंत में अंतिम पृष्ठ पर लिखी कविता की बात करें ‘परसाईं जी की बात‘ जिसमें उनके अंतिम शब्द जडवत अवस्था में छोड़ देते हैं पाठक को-
‘तो शक होने लगता है,
परसाई जी की बात पर, नहीं ---
अपनी कविताओं पर‘
इसके आकस्मिक अंत पर बिलकुल निःशब्द हूँ|

          नरेश सक्सेना की कविता-यात्रा सरलतम शब्दों की हरी-भरी पगडंडी है जिसमे सघन भाव के कठिन पड़ाव भी पाठक बिना दिमागी उठापटक के सीधे पार कर जाता है और कविता का अक्षर-अक्षर सीधा ह्रदय पर टंकित होता है| नरेश जी को अपने सरल शब्दों से भावों के सागर को तल तक नापना बखूबी आता है| जहाँ एक ओर कवि के रूप में नरेश जी पाठक के ऊपर अमिट छाप छोड़ते हैं  वहीं व्यक्तिगत स्तर पर वे बहुआयामी व्यक्तित्व के स्वामी हैं| विशिष्ट होते हुए भी सरल, सौम्य और साधारण दिखना उन्हें अतिविशिष्ट बनाता है| उम्र के छियत्तरवें वर्ष में भी सम्पूर्ण ऊर्जा के साथ इतनी सक्रियता एक सुखद आश्चर्य से भर देती है|
          अंत में यही कहूँगी कि नरेश जी के काव्य संग्रह ‘सुनो चारुशीला‘ के पहले पन्ने से आख़िरी पन्ने तक का  सफ़र मेरे लिए कविता की एक अविस्मरणीय यात्रा है| सच कहूँ तो उनका सृजन वैज्ञानिक पृष्ठभूमि की ठोस चट्टान से निकला एक ऐसा मीठा झरना है जो सच्चे काव्य प्रेमी को बहा कर नहीं ले जाता वरन घूँट-घूँट तृप्त करना जानता है| सघन भावों के धागे में पिरोए उनके सरल शब्दों के मनके उनकी कविता को साहित्य जगत के लिए एक आकर्षक और अनमोल आभूषण बनाते हैं| यह कामना करती हूँ कि उनकी नई रचनाओं से रूबरू होती रहूँ |
http://shabdvyanjana.com/AuthorPost.aspx?id=1014&rid=36

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