Saturday 27 October 2012

Poem


    यातनाएं

           
 - विस्सावा शिंबोर्स्का
             
- अनुवाद: विजय अहलूवालिया
बदला कुछ भी नहीं
यह देह उसी तरह दर्द का कुआं है।
इसे खाना, सांस लेना और सोना होता है।
इस पर होती है महीन त्वचा
जिसके नीचे ख़ून दौड़्ता रहता है।
इसके दांत और नाख़ून होते हैं।
इसकी हड्डियां होती हैं जिन्हें तोड़ा जा सकता है।
जोड़ होते हैं जिन्हें खींचा जा सकता है।

बदला कुछ भी नहीं।
देह आज भी कांपती है उसी तरह
जैसे कांपती थी
रोम के बसने के पूर्व और पश्चात्।
ईसा के बीस सदी पूर्व और पश्चात्
यातनाएं वही-की-वही हैं
सिर्फ़ धरती सिकुड़ गई है
कहीं भी कुछ होता है
तो लगता है हमारे पड़ोस में हुआ है।

बदला कुछ भी नहीं।
केवल आबादी बढ़ती गई है।
गुनाहों के फेहरिस्त में कुछ और गुनाह जुड़ गए हैं
सच्चे, झूठे, फौरी और फर्जी।
लेकिन उनके जवाब में देह से उठती हुई चीख
हमेशा से बेगुनाह थी, है और रहेगी।

बदला कुछ भी नहीं
सिवाय तौर-तरीकों, तीज-त्यौहारों और नृत्य-समारोहों के।
अलबत्ता मार खाते हुए सिर के बचाव में उठे हुए हाथ की मुद्रा वही रही।
शरीर को जब भी मारा-पीटा, धकेला-घसीटा
और ठुकराया जाता है,
वह आज भी उसी तरह तड़पता ऐंठता
और लहूलुहान हो जाता है।

बदला कुछ भी नहीं
सिवाय नदियों, घाटियों, रेगिस्तानों
और हिमशिलाओं के आकारों के।
हमारी छोटी-सी आत्मा दर-दर भटकती फिरती है।
खो जाती है, लौट आती है।
क़्ररीब होती है और दूर निकल जाती है
अपने आप से अजनबी होती हुई।
अपने अस्तित्व को कभी स्वीकारती और कभी नकारती हुई।
जब कि देह बेचारी नहीं जानती
कि जाए तो कहां जाए।

सादा जीवन उच्च विचार का आर्थिक सिद्धान्त


सादा जीवन उच्च विचार का आर्थिक सिद्धान्त




सन्1944 में श्री मन्नारायण ने जब गांधी योजना का मसविदा तैयार करके बापू जी के सामने रखा तो उन्होने मसविदे के अन्तिम पेज पर लिखा कि मेरे आर्थिक विचारों का निचोड़ है -''सादा जीवन, उच्च विचार''. सुनने मात्र से ऐसा लगता है कि गांधी जी का यह सूत्र आर्थिक विचार के रूप मे है ही नही. पश्चिम के आधुनिक अर्थशास्त्र के अध्ययन से तो लगता है यह सिद्धान्त बिल्कुल सही है. समसीमान्त उपयोगिता का नियम अर्थशास्त्र से जुड़े सभी लोग जानते हैं, जैसे-जैसे हम किसी वस्तु का उपयोग करते जाते हैं, वैसे-वैसे उस वस्तु से प्राप्त आनन्द घटता जाता है. जैसे गरीब के लिए एक रुपया बहुत कीमती होता है लेकिन वही रुपया अमीर के लिए धूल के समान है क्योंकि वह धन का उपयोग बहुत कर चुका है. आर्थिक विश्लेषण के बाद ऐसा लगता है कि बापूजी का सिद्धान्त ठीक था कि सामान्य लोगों का जीवन सरल हो, सभी आवश्यक आवश्यकताएं पूरी हों, भौतिक समृद्धि और नैतिक समृद्धि में सन्तुलन हो, तभी व्यक्ति को पूर्ण संतोष प्राप्त हो सकेगा.
गांधी जी के अनुसार विलासितापूर्ण आवश्यकताएं नहीं चाहिए, परन्तु जरूरी आवश्यकताएं हर नागरिक की पूरी होनी चाहिए. हमारे देश की आबादी बढ़ती जा रही है और संसाधन तो उतने ही हैं. अत: भारत को व्यवहारिक बुद्धि से काम लेते हुए संयम रखना होगा, अपनी आवश्यकताओं को साधनों के अनुकूल करना होगा, आवश्यकताओं को अध्यात्मिकता और नैतिकता का अंश हेना होगा तभी भारत के प्रत्येक नागरिक को संतोष मिल पाएगा. हमारे उपनिषदों में हजारों वर्ष पहले कहा गया था-'' वित्तेन तर्पणीयो मनुष्य:'' अर्थात् वित्त से मनुष्य कभी संतुष्ट नही होता. इसे नकारते हुए कहा जा सकता है कि यह बात तो ईश्वरीय है, धर्म की है लेकिन अमरीका की सर्वाधिक फैशनेबल पत्रिका के अनुसार ऐसा ही कुछ सामने आया है. इस पत्रिका मे थाँमसन ने एक लेख लिखा है ''restless Generation of US''. इसमे उन्होंने लिखा है कि अमेरिका के कुछ युवक-युवतियां मटाला गांव मे बनी गुफाओं मे एकान्त वास कर रहे हैं, क्योंकि ये लोग वहां के यान्त्रिक जीवन और समृद्धि से ऊबकर यहां भाग आए हैं. लेखक ने जब उनसे पूछा तो करोड़पति लड़के ने जवाब दिया-''we come to caves to cleanse out our mind and body bugs''. एक अन्य युवक ने कहा- ''मै22 वर्ष का हूं परन्तु जीवन से ऊब गया हूं, मुझे ईश्वर मे विश्वास नही है, मैं मानता हूं कि अमेरिका दुनियां का स्वर्णिम केन्द्र है.'' अत: जितना ही संग्रह अधिकाधिक होता है उतना ही दुख बढ़ता जाता है. परन्तु आज-कल तो साधु-सन्त भी गुफाओं के बजाय मठों मे रहना पसन्द करते हैं.
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो. जे के मेहता ने अपनी पुस्तक THE Philosophical Interpretation of Economics में अर्थशास्त्र का अन्तिम उद्येश्य वासनारहित (wantless) होना बताया. बापूजी कहा करते थे भौतिक साधनों को बढ़ाने की अपेक्षा संयम पर जोर देने से जीवन सुखी बनता है.
महान अमेरिकी अर्थशास्त्री प्रो. गाल ब्रेथ ने'The New Industrial state' मे लिखा है- ''यदि हम मात्र भौतिक मूल्यों के पीछे भागते जाएंगे तो कुछ वर्षों मे देखेगे कि लोकशाही रहेगी आर्थिक विकास का उद्येश्य सफल होगा. कुछ गिने-चुने लोग हम पर हावी होंगे...हमारा सत्यानाश कर देंगे...'' यह किसी साधू सन्त की वाणी नहीं बल्कि एक महान अर्थशास्त्री की है
.
आज हम बापू के वरदान स्वरूप आर्थिक सिद्धान्त को त्याग अन्धी दौड़ मे जीवन के मूल्य ही खो बैठे है, जिसके कारण कर्ज वृत्ति और आर्थिक गुलामी मे जकड़ते जा रहे हैं.
हे राम!

                         -Vandana Tiwari
                           Sakhin, Hardoi

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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