Sunday 2 December 2012

क्षणिकाएँ




बिके हुएलोग

                 -विष्णु प्रभाकर

चुके हुए लोगों से

ख़तरनाक़ हैं
बिके हुए लोग
वे
करते हैं व्यभिचार
अपनी ही प्रतिभा से


अकविता

                    -विष्णु प्रभाकर

मुँह-से-मुँह मिलाकर

बोले वह
बुर्र बुर्र बुर्र
कानाबाती कुर्र कुर्र कुर्र
टीली-लीली झर्र-झर्र-झर्र
अरे रे रे
दुर्र दुर्र दुर्र


निकटता

                   -विष्णु प्रभाकर

त्रास देता है जो

वह हँसता है
त्रसित है जो
वह रोता है
कितनी निकटता है
हँसने और रोने में


स्वप्न

              -गोग

आज मैं

एक अमीर और इज़्ज़तदार आदमी
बन रहा था
कि अचानक
किसी ने कहा-
चल उठ!
सुबह हो गई।


मैं ही मैं

                -विष्णु प्रभाकर

जीवन के अन्तिम छोर पर खड़ा

मैं
सोचता हूँ -
जिन्होंने मुझसे घृणा की,
जिन्होंने मेरी उपेक्षा की,
वही सत्य थे।
क्योंकि-
करता नहीं कोई घृणा किसी से।
करता नहीं कोई उपेक्षा किसी की।
करता हैमैंहीमैंका मूल्यांकन।


न्याय

               -विष्णु प्रभाकर

न्याय मिलता नहीं है

विवेक से
सत्य और असत्य के।
मिलता नहीं है वह दुरन्त
मानवीय भावना में
साक्षी-
केवल साक्षी है आधार
उसके आस्तित्व का
और बाज़ार पटे पड़े हैं
असंख्य अनाहूत साक्षियों से।
कितना सुलभ है न्याय
महंगाई के इस युग में।


सत्य

               -विष्णु प्रभाकर

सत्य है स्थापना वह

प्रमाणित होती
जो मात्रा तर्क से -
और तर्क आश्रित है
बुद्धि-चातुर्य पर
जितना चतुर है जो
उतना ही निरपेक्ष है
असत्य उसका।


कहाँ है वो

              -प्रभाकिरण जैन

एक ऊँची मचान पर

जहाँ से
ज़िन्दगी की
हर भागदौड़
चहलक़दमी लगे

मैं भी

खड़े होकर
देखना चाहती हूँ


ज़िन्दगी की चादर

              -अलका सिन्हा

ज़िन्दगी को जिया मैंने

इतना चौकस होकर
जैसे कि नींद में भी रहती है सजग
चढ़ती उम्र की लड़की
कि कहीं उसके पैरों से
चादर उघड़ जाए।



क्षणिकाएँ


खुली खिड़कियॉ

             -अम्बरीश श्रीवास्तव


खुली खिड़कियॉ

हमेशा हैं पर्याय
ताज़गी का
चाहे हो भवन
या फिर कुछ भी।

सत्संग

                 -अम्बरीश श्रीवास्तव


ये चंचल-सी रेत

नहीं बंधती बंधन में
भरभराकर फिसल जाती है
आती है जब-जब वही
सीमेंट की संगत में
ईंट-पत्थर तक
बाँध देती है।


अशांति

            -विष्णु प्रभाकर


तुम हो केवल

अपने लिये नितांत
प्रश्न करता है मुझसे
मेरा वृत्तंत
कैसे हो गये तुम प्राण
यूँ अशांत
दौड़ता फिरता हूँ मैं
यहाँ-वहाँ
कहाँ-कहाँ
पर होता कहीं नहीं।


चेतना

              -विष्णु प्रभाकर


मेरे अंधेरे बंद मकान के

खुले आंगन में
कैक्टस नहीं उगते
मनीप्लांट ख़ूब फैलता है
लोग कहते हैं
पौधों में
चेतना नहीं होती।

अहसास

               -विष्णु प्रभाकर


सिसिफस

हनुमान
या
अश्वत्थामा
सभी मनुष्य थे
चढ़े और गिरे
लेकिन मैं नहीं गिरूंगा
मैंने अपने अहसास को
कील दिया है।


दो चित्र: तब और अब

               -विष्णु प्रभाकर


शिव का तांडव नर्तन

लेटी है माँ
जहाँ उनके चरणों में
और लील गया है वह स्पर्श
उनकी उग्रता को
भाषा के क्रूर हाथों में
मनुष्य का कंकाल
उगल रहा है, काला लहू।

बाज़ार

               -विष्णु प्रभाकर


फोन की घंटी बजी

मैंने रिसीवर उठाया
उधर से पूछा किसी ने
सुनंदा है क्या?
बाज़ार गई है।
कब तक लौटेगी?
बाज़ार से लौटने का
समय होता है क्या?

स्वर्ग-नरक

                 -विष्णु प्रभाकर

शक्ति नहीं है

कर सकूँ निर्माण स्वर्ग का
बाधा बनूँ क्यों तब
उनकी
जिनकी मंज़िल है नरक।
कौन जाने वह नरक ही है
स्वर्ग मेरा
क्योंकि अंतत:
दिए हैं अर्थ
मैंने ही
शब्द को।

इतिहास

               -विष्णु प्रभाकर

आदमी मर गया कभी का

पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!

डूबना

                -विष्णु प्रभाकर

मैंने उसकी कविता पढ़ी

शब्द थे केवल उन्नीस
पर मैं डूबा तो-
डूबता ही चला गया-
अवश, अबोल, आकंठ।

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

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