Sunday 3 March 2013

हिंदी की खातिर

                                                        --गिरिराज किशोर

न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त इटावा के रहने वाले थे। सातवें दशक में मेरा और उनका हिंदी सेवा के लिए कानपुर बार एसोसिएशन की तरफ से सम्मान हुआ था। तभी पहली बार उनसे भेंट हुई थी। लंबा कद, हृष्टपुष्ट शरीर और भव्य व्यक्तित्व। उनके परिचय में जब बताया गया कि उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय की परंपरा को तोड़ते हुए चार सौ से अधिक फैसले हिंदी में लिखे हैं, तो मुझे डॉ लोहिया का ध्यान आया कि उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट में खुद अपने मुकदमे में बहस हिंदी में की थी। अदालत की तरफ से बार-बार टोका गया, पर वे अपने तर्क हिंदी में देते रहे। दरअसल, ज्यादातर क्रांतिकारी शुरुआत उत्तर प्रदेश से हुर्इं। जब प्रेमशंकर गुप्त इलाहाबाद हाईकोर्ट में न्यायाधीश हुए तो उन्होंने अपने फैसले हिंदी में लिखने शुरू किए। न्यायपालिका में हिंदी के प्रति इतना जागरूक और प्रतिबद्ध न्यायाधीश दूसरा कोई मेरे संज्ञान में नहीं आया। अब बहुत से नए वकील गलत अंग्रेजी बोल कर अदालत पर दबदबा बनाने की कोशिश करते हैं। मैंने सुना है कि कुछ जज भी सही हिंदी में फैसले लिखने के बजाय अपनी अंग्रेजी में फैसले लिखना पसंद करते हैं। डॉ लोहिया जिस तरह हिंदी के दीवाने थे, वैसे ही प्रेमशंकर गुप्त भी थे। यों राजनीतिकों में मुलायम सिंह हिंदी-भक्त हैं। एक बार जब वे मुख्यमंत्री थे तो किसी सिलसिले में मैं उनसे मिला था। उन्हें एक पत्र दिखाया। देखते ही उन्होंने पूछा कि अंग्रेजी में यह पत्र क्या हमारे किसी अधिकारी ने लिखा है! मैंने कहा कि नहीं, मैंने लिखा है। उन्होंने मेरी तरफ ऐसे देखा जैसे कह रहे हों कि आपको तो ऐसा नहीं करना चाहिए था। मैंने गर्दन झुका ली। मन ही मन तय किया कि अब सिवाय उनके जो हिंदी नहीं जानते, सबको हिंदी में पत्र लिखूंगा। जब ‘पहला गिरमिटिया’ लिखने के लिए दक्षिण अफ्रीका जाना था, तब उन्होंने ही मुझे पचहत्तर हजार रुपए का अनुदान दिया था। अगर वह न मिला होता तो यह उपन्यास कभी न लिखा गया होता। प्रेमशंकर गुप्त ने एक न्यास भी बनाया है जो हर साल हिंदी सेवकों को सम्मान प्रदान करता है। दो वर्ष पहले मुझे भी वह सम्मान मिला था। हाल ही में 2012 का सम्मान दिया गया। गुप्त जी अस्वस्थ होते हुए भी उसमें सम्मिलित होने इलाहाबाद से इटावा गए थे। जब जनवरी में उनसे फोन पर बात की थी तो उन्हें मुझे पहचानने में एक-दो मिनट लगे थे। उन्हें शायद ब्रेन हैमरेज हो चुका था। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा कि लगता है, अब शायद ही जा पाएं। मुझे अच्छा नहीं लगा। हिंदी के प्रति समर्पित लोग अब रह नहीं गए। यों भी हिंदी की नाव हिंदी वालों के कारण ही डावांडोल है। अनेक लेखक ऐसे हुए जिन्होंने हिंदी का नेतृत्व किया है। मैथिलीशरण गुप्त, निराला, अज्ञेय ये सब हिंदी के प्रति समर्पित थे। लेकिन प्रेमशंकर गुप्त ने अपने बल पर हिंदी के अभिवर्धन और संवर्धन के लिए न्यास बनाया और सम्मान पर्व को वे पूरी आस्था के साथ भव्य तरीके से हर वर्ष इटावा में आयोजित करते रहे। उनका जाना हिंदी के अंतिम योद्धा का चले जाना है। गुप्त जी पूंजीपति नहीं थे। इसके बावजूद उन्होंने एक छोटे-से नगर में हिंदी की मशाल जलाए रखी, जिसका आलोक हर दिशा में फैला था। हिंदी आजादी की लड़ाई का सबसे प्रभावी हथियार था। आज भी राष्ट्रीय पर्वों पर दक्षिण के कुछ नगरों में प्रभात-फेरियां निकलती हैं और लोग हिंदी के वे जागरण गीत गाते हैं जो आजादी की लड़ाई के दौरान गाए जाते थे। उत्तर भारत के लोग वह सब भूल गए। वे सुबह गाते हुए सड़कों पर निकलने में शर्म महसूस करते हैं। आज सब भारतीय भाषाएं संकट में हैं। मैकाले द्वारा रोपे अंग्रेजी के बिरवे को नेहरू जी ने हिंदी और भारतीय भाषाओं की अस्मिता की खाद देकर छतनार वृक्ष बना दिया! उसके साए में सब भारतीय भाषाएं अपने पत्ते झारने के लिए मजबूर हैं। आज दूसरी भाषाएं भी अंग्रेजी के आतंक से पीड़ित हैं। बाहर भले ही अंग्रेजी बोल कर खुश हो लेते हों, पर दिलों में यह आतंक व्याप्त है कि हमारी भाषा का क्या होगा। उनके बच्चे भी अंग्रेजी में बोलना सम्मान की बात समझते हैं। अगर हमें अपनी पहचान को जिंदा रखना है तो हमें टंडन जी, मैथिलीशरण गुप्त, निराला और न्यायमूर्ति प्रेमशंकर गुप्त जैसे समर्पित लोगों का अनुकरण करना होगा। जो लोग अपनी क्षेत्रीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में लाने के लिए प्रयत्नशील हैं वे भी शायद ही अंग्रेजी के इस आक्रमण से बच पाएं, क्योंकि अंग्रेजी के निजी स्कूल गांवों में भी पहुंच रहे हैं। वे भी इस महामारी के शिकार होते जा रहे हैं! 
सौज. जनसत्ता


Thursday 28 February 2013

भूली-बिसरी यादें

दूरियाँ | भूली-बिसरी यादें

स्वप्न मेरे...........: माँ ... एक रूप

मेरी धरोहर: लौटकर कब आते हैं???????.........प्रीति सुराना: सपने हैं घरौंदे, जो उजड़ जाते हैं,.... मौसम हैं परिन्दे, जो उड़ जाते हैं,.... क्यूं बुलाते हो, खड़े होकर बहते हुए पानी में उसे...

hum sab kabeer hain: टूटा मन


भूली-बिसरी यादें : तकदीर के मारे:                          तूफां से डरकर लहरों के बीच  सकारे   कहाँ जाएँ,              इस जहाँ में भटककर तकदीर के मारे कहाँ जाएँ ।...

डॉ. हीरालाल प्रजापति: 43. ग़ज़ल : पूनम का चाँद...................

परिकल्पना: उत्थिष्ठ भारत

स्वप्न मेरे...........: वो एक लम्हा ...

फूल | भूली-बिसरी यादें

दोहे


               -फ़िराक़ गोरखपुरी
नया घाव है प्रेम का जो चमके दिन रात
होनहार बिरवान के चिकने चिकने पात

यही जगत की रीत है, यही जगत की नीत
मन के हारे हार है, मन के जीते जीत

जो न मिटे ऐसा नहीं कोई भी संजोग
होता आया है सदा मिलन के बाद वियोग

जग के आँसू बन गए निज नयनों के नीर
अब तो अपनी पीर भी जैसे पराई पीर

कहाँ कमर सीधी करे, कहाँ ठिकाना पाय
तेरा घर जो छोड़ दे, दर दर ठोकर खाय

जगत धुदलके में वही चित्रकार कहलाय
कोहरे को जो काट कर अनुपम चित्र बनाय

बन के पंछी जिस तरह भूल जाय निज नीड़
हम बालक सम खो गए, थी वो जीवन भीड़

याद तेरी एकान्त में यूँ छूती है विचार
जैसे लहर समीर की छुए गात सुकुमार

मैंने छेड़ा था कहीं दुखते दिल का साज़
गूँज रही है आज तक दर्द भरी आवाज़

दूर तीरथों में बसे, वो है कैसा राम
मन मन्दिर की यात्रा, मूरख चारों धाम

वेद, पुराण और शास्त्रों को मिली न उसकी थाह
मुझसे जो कुछ कह गई, इक बच्चे की निगाह

Thursday 21 February 2013

रात


        - उदय प्रकाश
इतने घुप्प अंधेरे में 
एक पीली पतंग
धीरे-धीरे
आकाश में चढ़ रही है.

किसी बच्चे की नींद में है
उसकी गड़ेरी

किसी माँ की लोरियों से
निकलती है डोर !

Wednesday 20 February 2013

तिब्बत



        - उदय प्रकाश

तिब्बत से आये हुए
लामा घूमते रहते हैं

आजकल मंत्र बुदबुदाते
उनके खच्चरों के झुंड
बगीचों में उतरते हैं

गेंदे के पौधों को नहीं चरते
गेंदे के एक फूल में
कितने फूल होते हैं

पापा ?
तिब्बत में बरसात
जब होती है

तब हम किस मौसम में

होते हैं ?
तिब्बत में जब तीन बजते हैं
तब हम किस समय में

होते हैं ?
तिब्बत में
गेंदे के फूल होते हैं

क्या पापा ?
लामा शंख बजाते है पापा?
पापा लामाओं को
कंबल ओढ़ कर

अंधेरे में

तेज़-तेज़ चलते हुए देखा है

कभी ?
जब लोग मर जाते हैं
तब उनकी कब्रों के चारों ओर

सिर झुका कर

खड़े हो जाते हैं लामा
वे मंत्र नहीं पढ़ते।
वे फुसफुसाते हैं ….तिब्बत
..तिब्बत

तिब्बततिब्बत

….तिब्बततिब्बततिब्बत

तिब्बत-तिब्बत ..
..तिब्बत …..
….. तिब्बत -तिब्बत
तिब्बत …….
और रोते रहते हैं
रात-रात भर।
क्या लामा
हमारी तरह ही

रोते हैं

पापा ?

Wednesday 13 February 2013

धरोहर

साहित्य एक विशाल सागर है जिसमें जितना डूबो उतना और गहरे जाने का मन होता है। इस विशाल सागर से कुछ मोती आपके सामने लिंक के रूप में प्रस्तुत हैं। आशा है आप आनंद उठाएंगे।
शुरूआत ऐसे रचनाकार से जो लिखते तो बहुत दिनों से हैं लेकिन गुपचुप। अभी कुछ दिनों पहले ही इन्होंने अपनी रचनायें सबके सामने लानी शुरू की हैं। ये हैं सण्डीला, हरदोई, उत्तर प्रदेश के रहने वाले मो आरिफ सण्डीलवी।

Urdu-Hindi Poetry: राम कहानी: वो चांद सी सूरत नामे-खुदा, वो उठती जवानी क्या कहिए दिल ले गयी बातों बातों में, ये ज़हर बयानी क्या कहिए कुछ हंस के कटी कुछ रो के...

मेरी धरोहर: छोड़ो मेरे दर्दे-ए-दिल की फिक्र तुम.........अधीर: यहॉ कब कौन किसका हुआ है , इंसान जरुरत से बंधा हुआ है । मेरे ख्वाबो मे ही आते है बस वो, पाना उसको सपना बना हुआ है। सुनो,पत्थर द...

खुद को पाना जरूर Khud ko pana jarur | Life is Just a Life

मेरी धरोहर: सुकूं बांकपन को तरसेगा...............................: एक निवेदनः कोई सामान घर में एक कागज में पेक करके लाया गया वह कागज मेरी नजर में आया, उसी कागज में ये ग़ज़ल छपी हुई थी, पर श...

उच्चारण: "ग़ज़ल-खो चुके सब कुछ" (डॉ,रूपचन्द्र सास्त्री...: खो चुके सब, कुछ   नहीं   अब, शेष खोने के लिए। कहाँ से लायें धरा , अब बीज बोने के लिए।। सिर्फ चुल्लू में सिमटकर , रह ग...

मेरी धरोहर: अदब से झुकने की तहज़ीब खानदान की है .............सच...: हवा जो नर्म है ,साज़िश ये आसमान की है वो जानता है परिंदे को ज़िद उड़ान की है............ मेरा वजूद ही करता है मुझसे ग़द्दारी नहीं तो उठने क...

|| आकाश के उस पार ||: फासला: क्या फरक कि मैं चला या तू चला है ,  बात है कि फासला कुछ कम हुआ है |  टूटने वाला हूँ मैं कुछ देर में ,  ये मेरी अपनी अकड़ का ही सिला है |  ...

Tuesday 12 February 2013

अनुकूल वातावरण



                  - दुष्यन्त कुमार 

उड़ते हुए गगन में

परिन्दों का शोर

दर्रों में, घाटियों में

ज़मीन पर

हर ओर...

एक नन्हा-सा गीत

आओ

इस शोरोगुल में

हम-तुम बुनें,

और फेंक दें हवा में उसको

ताकि सब सुने,

और शान्त हों हृदय वे

जो उफनते हैं

और लोग सोचें

अपने मन में विचारें

ऐसे भी वातावरण में गीत बनते हैं।

                                   

केदार के मुहल्ले में स्थित केदारसभगार में केदार सम्मान

हमारी पीढ़ी में सबसे अधिक लम्बी कविताएँ सुधीर सक्सेना ने लिखीं - स्वप्निल श्रीवास्तव  सुधीर सक्सेना का गद्य-पद्य उनके अनुभव की व्यापकता को व्...